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भी मेठिया जैन प्रन्यमाला
गए। विवाह के बाद तुम्हें त्याग देते या दीक्षा ले लेते तो सारे जीवन दुःख उठाना पड़ता। अब हम तुम्हारा विवाह किसी दूसरे राजकुमार से करना चाहते हैं । इस में नीति, धर्म या समाज की ओर से किसी प्रकार का विरोध नहीं है। तुम्हारी क्या इच्छा है ?
राजीमती- पिताजी ! मेरा विवाह तो हो चुका है। हृदय से किसी को पति रूप में या पनीरूप में स्वीकार कर लेना ही विवाह है। उसके लिए बाह्य दिखावे की आवश्यकता नहीं है। बाह्य क्रियाएं केवल लोगों को दिखाने के लिए होती हैं। असली विवाह हृदय ' का सम्बन्ध है। मैं इस विवाह को कर चुकी हूँ। आर्य कन्या को । भाप दुवारा विवाह करमे के लिये क्यों कह रहे हैं ?
माता- वेटी ! हम तुम्हें दूसरे विवाह के लिए नहीं कह रहे हैं। विवाह एक लौकिक प्रथा है और जब तक वह पूरी नहीं हो जाती, फन्या और वर दोनों अविवाहित माने जाते हैं, दुनिया उन्हें अविवाहित ही कहती है, इसी लिए तुम अविवाहिता हो।
राजीमती-दुनिया कुछ भी कहे। लौकिक रीति रिवाज भले ही मुझे विवाहिता न मानते हों किन्तु मेरा हृदय तो मानता है। मेरीअन्तरात्मा मुझे विवाहिता कह रही है। सांसारिक सखों के प्रलोभन में पड़ कर अन्तरात्मा की उपेक्षा करना उचित नहीं है। मेरा न्याय मेरी अन्तरात्मा करती है, दुनिया की बातें नहीं। ___ माता- कुमार अरिष्टनेमि तोरण द्वार से लौट गए। उन्होंने तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया। फिर तुम अपने को उनकी पत्नी कैसे पानती हो?
राजीमती- मेरा निर्णय भगवान् अरिष्टनेमि के निर्णय पर अवलम्बित नहीं है। उन्होंने अपना निर्णय अपनी इच्छानुसार किया है। वे चाहे मुझे अपनी पत्नी समझे या न समझे किन्तु मैं उन्हें एक बार अपना पति मान चुकी हूँ। मेरे हृदय में अब दूसरे