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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
के लिए आगे बढ़ी । वसुमती कुछ पीछे हट गई।
. रथी अब तक अलग खड़ा हुआ केवल बातें सुन रहा था। वसमती की दुर्दशा देख कर उसे अपनी स्त्री पर क्रोध आ रहाथा। उसे पकड़ने के लिए वेश्या को आगे बढ़ती देख कर उससे न रहा गया । म्यान से तलवार निकाल कर कड़कते हुए बोला- सावधान ! इसकी इच्छा के विना अगर मेरी बेटी को हाथ लगाया तो तुम्हारी खैर नहीं है। यह कहकर वह वसुमती के पास खड़ा होगया।
हाथ में नंगी तलवार लिए हुए कुपित रथी के भीषण रूपको ' देख कर वेश्या डर गई । भय से पीछे हट कर वह चिल्लाने लगीदेखो ! ये मुझे तलवार से मारते हैं। जब लड़की विक चुकी है तो अब इन्हें बोलने का क्या अधिकार है ? इन्हें केवल कीमत लेने से मतलव है और मैं पूरी कीमत देने के लिए तैयार हूँ, फिर इन्हें बीच में पड़ने का क्या अधिकार है। वेश्या के समर्थक भी उसके साथ चिल्लाने लगे। रथी को आगे बढ़ते देख कर कुछ लोग उसकी
ओर भी बोलने लगे। दोनों दल तन गए। झगड़ा बढ़ने लगा। __ वसुमतीने सोचा-दोनों पक्ष अज्ञानता के कारण एक दूसरे के रक्त पिपासु बने हुए हैं। क्रोधवश एक दूसरे को मारने के लिए उद्यत हैं । एक दल तो अपने स्वार्थ, वासना और लोभ में पड़ कर अन्धा हो रहा है, इस समय उसे किसी प्रकार नहीं समझाया जा सकता, किन्तु दूसरा पक्षन्याय की रक्षा के लिए हिंसा का आश्रय ले रहा है। धर्म की रक्षा के लिए अधर्म की शरण ले रहा है। क्या धर्म अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकता ? क्या पाप की अपेक्षा वह निर्वल है ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। धर्म अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है। उसे अधर्म का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है। धर्म की तो सदा विजय होती है फिर वह पाप की शरण क्यों ले। हिंसा पाप है। न्याय की रक्षा के लिए उसकी