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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग .
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दायित्व तुम पर आपड़ा है। तेरे पिता किसी ऊँची भावना को , लेकर ही वन में गए होंगे । अपने धर्म की रक्षा करना हमारा सब
से पहला कर्तव्य है। नष्ट हुई चम्पापुरी फिर वस सकती है, गया हुआ जीवन फिर मिल सकता है किन्तु गया हुआ धर्म फिर मिलना कठिन है। धर्म में हह रहने पर ही तुम अपने स्वप्न के बचे हुए भाग को सत्य कर सकोगी।
धारिणी वसमती को यह उपदेश दे रही थी कि इतने में शतानीक की सेना का एकरथी (स्थसे लड़ने वाला योद्धा)वहाँ आ पहुंचा। वह राजमहल को लूटने के लिए वहाँआया था।चारों ओर विविध प्रकार के रत्नों को देख कर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । पहरेदार तथा नौकर चाकर डर के मारे पहले ही भाग चुके थे, इसलिए रानी के खास महल तक पहुंचने में उसे कोई कठिनाई न हुई। __धारिणी को देख कर रथीचकित रहगया। उसके सौन्दर्य को देख कर वह रत्नों को भूल गया। उसे मालूम पड़ने लगा, जैसे इम जीवित स्त्रीरत्न के सामने निर्जीव रत्न कङ्कर पत्थर ही हैं। उसे वल पूर्वक प्राप्त करने का निश्चय करके रथी तलवार निकाल करधारिणी के पास जाकर कहने लगा- उठो और मेरे साथचलो। अब यहाँ , तुम्हारा कुछ नहीं है। चम्पापुरी पर शतानीक का राज्य है और यहॉ की सारी सम्पत्ति सैनिकों की है। मेरे साथ चलो, नहीं तो यह तलवार तुम्हारा भी खून पीने में न हिचकेगी। ___ धारिणी ने सोचा-यह सैनिक विचारहीन होरहा है। इस समय इसे समझाना व्यर्थ है। सम्भव है, युद्ध का नशा उत्तरने पर समझाने से यह मान जाय । तब तक वसुमती को भी मैं अपनी चात पूरी कह सकूँगी। यह सोच कर विना किसी भय या दीनता के अपनी पुत्री को लेकर वह रथी के साथ हो गई और स्थी के कहे भनुसार निःसङ्कोच रथ में जा कर बैठ गई।