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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांरवां माग
हे यक्षाधिराज ! मैंने भाप का चित्र बनाया है। उस में यदि कोई त्रटि रह गई हो तो इस सेवक को क्षमा कीजिएगा । आप के सन्तोष से सभी का कल्याण है। नगर के सभी लोग श्रापकी प्रसन्नता चाहते हैं।
यक्ष चित्रकार की स्तुति से प्रसन्न हो गया और बोला-चित्रकार! मैं तुम पर सन्तुष्ट हूँ। अपना इच्छित वर मांगो।
चित्रकार ने कहा- यदि आप प्रसन्न हैं तो अब यहाँ के लोगों को अभयदान दे दीजिए। दया स्वर्ग और मोक्ष की जननी है।
चित्रकार का परोपकार से भरा हुमा कथन सुन कर यक्ष और भी प्रसन्न हो गया और बोला-याज से लेकर जीवन पर्यन्त मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा। किन्तु यह वरदान तो मेरी सद्गति या परोपकार के लिए है । तुम अपने लिए कोई दूसरा वर मांगो।
चित्रकार ने उत्तर दिया-आपने मेरी प्रार्थनापरध्यान देकर जीव हिंसा को वन्द कर दिया, यह बड़े हर्ष की बात है। यदि आप विशेष प्रसन्न हैं तो मैं दूसरा वर माँगता हूँ-आप अपने मन को आत्मकल्याण की ओर लगाइर।
यक्ष अत्यन्त प्रसन्न होकर बोला- तुम्हारी बात मैं स्वीकार करता हूँ, किन्तु यह भी मेरे हित के लिए है। तुम अपने हित के लिए कुछ मांगो।
यक्ष के वार पार आग्रह करने पर चित्रकार ने कहा- यदि आप मेरे पर अत्यधिक प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिए कि मैं किसी व्यक्ति या वस्तु के एक भाग को देख कर सारे का चित्र खींच सकें। __ यक्ष ने 'तथाऽस्तु' कह कर उसकी प्रार्थना के अनुमार वर दे दिया। चित्रकार अपने अभीष्ट को प्राप्त कर बहुत खुश हुया
और अपने स्थान पर चला आया । उसके मुंह से सारा हाल सुन कर राजा और प्रजा को बड़ा हर्ष हुआ। सभी निर्भय होकर
विशेष प्रसन्न
र लगाइ। .. सहारी बात