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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
फाय के जीवों को छोड़ कर शेष सोलह दण्डकों में इसीप्रकारसम--- झना चाहिये । असंही जीव संज्ञी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। वाणव्यन्तर देवों तक ऐसे ही समझना चाहिए क्योंकि असंज्ञी जीव मर फरवाणन्यन्तरों तक ही जा सकते हैं। पृथ्वी श्रादि असंही जीव असंज्ञीभाव की अपेक्षा अप्रथम हैं क्योंकि पृथ्व्यादि जीवों ने अनन्त ही बार असंझी भाव प्राप्त किया है। नोसंज्ञी नोअसंज्ञी जीव (सिद्ध) नोसंज्ञी नोअसंझी भाव की अपेक्षा प्रथम हैं।
(५) लेश्या द्वार-सलेश्य (लेश्या वाले) जीव सलेश्य भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। कृष्ण लेश्या से शुक्ल लेश्या तक इसी प्रकार जानना चाहिये । लेश्या रहित जीव अलेश्य भाव की अपेक्षा प्रथम हैं, अप्रथम नहीं।
(६) दृष्टि द्वार-सम्यगदृष्टि जीव सम्यगदृष्टिभाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर शेष उन्नीस ही दण्डकों में इसी तरह समझना चाहिए। इसका यह अभिमाय है कि जो जीव पहली ही वार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है उस अपेक्षा से वह प्रथम है। जो जीव एक बार सम्यम्दर्शन प्राप्त कर उससे गिर गया है, दूसरी बार जब वह वापिस सम्यगदर्शन प्राप्त करता है तब सम्यगदृष्टि भाव की अपेक्षा वह अप्रथम कहा जाता है । एकेन्द्रिय जीवों को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता इस लिए वे इस द्वार में नहीं लिये गये हैं।
सम्यगदृष्टि भाव की अपेक्षा सिद्ध प्रथम हैं क्योंकि सिद्धत्व सहित सम्यगदर्शन मोक्ष जाने के समय प्रथम बार ही प्राप्त होता है।
मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि भाव की अपेक्षा अप्रयम है क्योंकि मिथ्यादर्शन अनादि है। मिश्रदृष्टि भाव का कथन सम्यग्दृष्टि की तरह समझना चाहिये अर्थात् मिश्रदृष्टि जीव मिश्रदृष्टि भाव की अपेक्षा कभी प्रथम और कभी अप्रथम दोनों तरह के होते हैं।