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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग ४१ worwwww. . .. .
~ ~ ~ (७) संयत द्वार- संयत जीव संयत भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। असंयत भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। संयतासंयत जीव, तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य संयतासंयत भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। नोसंयत नोअसंयत और नोसंयतासंयत जीव अर्थात् सिद्ध इन भावों की अपेक्षा प्रथम हैं अप्रथम नहीं क्योंकि सिद्धत्व भाव प्रथम बार ही प्राप्त होता है।
(८) कपाय द्वार- सकषायी अर्थात् क्रोध कषायी से लेकर लोभ कषायी तक के जीव सकषायी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। अकषायी मनुष्य अकषायी भाव की अपेक्षा कभी प्रथम और कभी अप्रथमदोनों तरह के होते हैं किन्तु अकषायी (सिद्ध)सिद्धत्व सहित अकषायी भाव की अपेक्षा प्रथम हैं।
(६) ज्ञान द्वार- ज्ञानी जीव ज्ञान की अपेक्षा प्रथम और अपथम दोनों तरह के होते हैं किन्तु केवलज्ञानी केवलज्ञान की अपेक्षा प्रथम ही होते हैं।'अकेवली जीव मति आदि चार ज्ञानों की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम होते हैं । अज्ञानी जीव अर्थात् मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभङ्ग ज्ञानी जीव इन भावों की अपेक्षा अप्रथम हैं।
(१०) योग द्वार- सयोगी अर्थात् मनयोगी, वचन योगी और काय योगी जीव तीनों योगों की अपेक्षा अप्रथम हैं। अयोगी जीव अयोगी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं।
(११) उपयोग द्वार- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग वाले जीव इन दोनों भावों की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। चौवीस हीदण्डक के जीव साकारोपयोग और अनाकारोपयोग भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं और सिद्धपद की अपेक्षा प्रथम हैं क्योंकि साकारोपयोग और अनाकारोपयोग विशिष्ट सिद्धत्व की प्राप्ति प्रथम बार ही होती है।