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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१२ ) वेद द्वार-सवेदीअर्थात् पुरुषवेदी, स्त्रीवेदी और नपुंसक वेदी जीव तीनों वेदों की अपेक्षा अप्रथम हैं। अवेदी भाव में मनुष्य अवेदक भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं और सिद्ध अवेदक भाव की अपेक्षा प्रथम हैं।
(१३) शरीर द्वार-सशरीरी अर्थात् औदारिक आदि शरीर वालेजीव इन शरीरों की अपेक्षा अप्रथम हैं। आहारक शरीर वाले जीव आहारक शरीर भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं।
(१४)पर्याप्त द्वार-पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पाँच पर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव इन भावों की अपेक्षा अप्रथम हैं। ___ उपरोक्त चौदह द्वारों में प्रथम और अप्रथम बतलाने का अभिप्राय यह है कि जिन जीवों कोजो भाव पहले प्राप्त होगए हैं उनकी अपेक्षा वे जीव अप्रथम कहे जाते हैं और जिन जीवों को जो भाव पहले माप्त नहीं हुए हैं उनकी अपेक्षा व प्रथम कहे जाते हैं।
(भगवती शतक १८ उद्देशा १) ८४३- चरमाचरम के चौदह बोल
जिसका अन्त हो जाता है वह चरम कहलाता है। जिसका कभी भी अन्त नहीं होता वह अचरम कहलाता है। चरमाचरम का विचार चौदह द्वारों से किया गया है। वे इस प्रकार हैं
(१) जीव द्वार- जीव जीवत्व भाव की अपेक्षा अचरम है क्योंकि जीवत्वभाव की अपेक्षाजीव का कभी भीअन्त नहीं होता।
नैरयिक जीव नैरयिक भाव की अपेक्षा चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जो जीव नरक से निकल कर मनुष्यभव आदि में जन्म लेता है और वहाँ से फिर नरक में नहीं जाता किन्तु मोक्ष में चला जाता है अर्थात् नरक से