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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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(१२) बारहवें गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों का उदय होता है। पूर्वोक्त ५६ में से ऋषभनाराच संहनन और नाराच संहनन ये दो प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं। ५७ प्रकृतियों का उदय बारावें गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त अर्थात् अन्तिम समय से पहले के समय तक पाया जाता है। निद्रा और प्रचला इन दो कर्मप्रकतियों का उदय अन्तिम समय में नहीं होता। इससे पूर्वोक्त ५७ कर्म प्रकृतियों में से निद्रा और प्रचला को छोड़ कर शेष ५५ कर्म प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है।
(१३)तेरहवें गुणस्थान में ४२ प्रकृतियों का उदय हो सकता है। पूर्वोक्त ५५ में से नीचे लिखी १४ कर्मप्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान तक ही रहता है-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४,
और अन्तराय की ५। ५५ में से १४ घटाने पर ४१ रह जाती हैं। तेरहवें गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म का भी उदय हो सकता है, इस लिए ४२ प्रकृतियाँ हो जाती हैं।
(१४) चौदहवें गुणस्थान में केवल १२ प्रकृतियों का उदय होता है। नीचे लिखी तीस प्रकृतियों का उदय तेरहवें गुणस्थान तक ही रहता है- (१) औदारिक शरीर (२) औदारिक अङ्गोपाङ्ग (३) अस्थिर नामकर्म (४) अशुभ नामकर्म (५)शुभविहायोगति (६)अशुभविहायोगति (७)प्रत्येक नामकर्म (८)स्थिर नामकर्म (8) शुभनामकर्म (१०) समचतुरस्त्र संस्थान (११) न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान (१२) सादि संस्थान (१३) वामन संस्थान (१४) कुब्जक संस्थान (१५) हुण्डक संस्थान (१६) अगुरुलघु नामकर्म (१७) उपघात नामकर्म (१८) पराघात नामकर्म (१९) उच्छ्वासनामकर्म (२०)वर्ण (२१)रस(२२) गन्ध (२३) स्पर्श (२४) निर्माण नामकर्म(२५)तैनसशरीर नामकर्म (२६) कार्मणशरीर नामकर्म (२७) वज्रऋषभनाराच संहनन (२८) मुस्वर नामकर्म (२६) दुःस्वर