________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १६३
mmmmmmmmmmmm श्रापका नहीं, इस लिए आप को खिन्न होने या पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं है। वर्षा ऋतु में मूसलधार दृष्टि होने पर भी यदि पपीहा प्यासा ही रह जाता है तो यह उसके कर्मों का ही दोष है, मेघ का नहीं । वसन्त ऋतु में सभीलताएं और वृक्ष नए पत्ते और फल फूलों से लद जाते हैं। यदि उस समय करीर वृक्ष पल्लवित नहीं होता तो यह उसी का दोष है, वसन्त का नहीं । सूर्योदय होने पर सभी प्राणी देखने लगते हैं। यदि उस समय उल्लू की आँखें बन्द हो जाती हैं तो यह उसी का दोष है, सूर्य का नहीं। मेरे अन्तराय कर्म ने ही मेरी दीक्षा में बाधादी थी, आपने नहीं। मैं इसमें आपका कुछ भी दोष नहीं मानती।
इस प्रकार के अनेक वचन कह कर सुन्दरीने भरत को शान्त किया। इसके बाद उसने उसी समय जिनेश्वर भगवान के निकट दीक्षा ले ली। सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर सुन्दरी शुद्ध चारित्र का पालन करते हुए दुष्कर तप करने लगी। __ जिस समय भरत ने छह खंड जीतने के लिए प्रस्थान किया उनके छोटे भाई बाहुबली तक्षशिला में राज्य कर रहे थे। बाहुवली को अपनी शक्ति पर विश्वास था। भरत के अधीन रहना उसे पसन्द न था। उसने सोचा- पूज्य पिताजी ने जिस प्रकार भरत को अयोध्या का राज्य दिया है, उसी प्रकार मुझे ततशिला का राज्य दिया है। जो राज्यं मुझे पिताजी से प्राप्त हुआ है,
उसे छीनने का अधिकार भरत को नहीं है। यह सोच कर उस · ने भरत के अधीन रहने से इन्कार कर दिया । चक्रवर्ती बनने
की अभिलोपा से भरत ने बाहुबली पर चढ़ाई करदी। बाहुबली ने भी अपनी सेना के साथ आकर सामना किया। एक दूसरे के रक्त की प्यासी वन कर दोनों सेनाएं मैदान में आकर डट गईं। एक दूसरे पर टूटने के लिए आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगीं।