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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१२) वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग- देव और नारकी जीवों के अपर्याप्त अवस्था में होने वाला काय योग वैक्रिय मिश्र शरीर काययोग है। यहाँ वैक्रिय और कार्मण की अपेक्षा मिश्र योग होता है ।
(१३) आहारक शरीर काययोग - आहारक शरीर पर्याप्ति के द्वारा पर्याप्त जीवों को आहारक शरीर काययोग होता है ।
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(१४) आहारक मिश्र शरीर काययोग - जिस समय आहारक शरीर अपना कार्य करके वापिस आकर औदारिक शरीर में प्रवेश करता है उस समय आहारक मिश्र शरीर काय योग होता है ।
(१५) तैजस कारण शरीर योग-विग्रह गति में तथा सयोगी केवली को समुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में तैजस कार्मण शरीर योग होता है । तैजस और कार्मरण सदा एक साथ रहते हैं, इस लिए उन के व्यापार रूप काय योग को भी एक ही माना है । काय योग के सात भेदों का विशेष स्वरूप इसी के दूसरे भाग के बोल नं० ५४७ में दिया गया है।
(पन्नवणा पद १६ ) (भगवती शतक २५ उद्देशा १)
८५६ - बन्धन नामकर्म के पन्द्रह भेद
जिस प्रकार लाख, गोंद आदि चिकने पदार्थ दो वस्तुओं को आपस में जोड़ देते हैं उसी प्रकार जो कर्म शरीरनामकर्म के वल से वर्तमान में ग्रहण किए जाने वाले पुद्गलों को पहले ग्रहण किए हुए पुलों के साथ जोड़ देता है, उसे बन्धन नामकर्म कहते हैं । इस से दार आदि शरीरों द्वारा ग्रहण होने वाले नए पुद्गल शरीर के साथ चिपक कर एकमेक हो जाते हैं। पाँच शरीरों में श्रदारिक, वैक्रिय और आहारक ये प्रत्येक भव में नए पैदा होते हैं इस लिए प्रथम उत्पत्ति के समय इनका सर्ववन्ध और बाद में देशबन्ध होता है अर्थात् उसी शरीर में नए नए पुद्गल आकर चिपकते रहते हैं । तैजस और कार्मण शरीर