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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १४१
जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं इस लिए उन दोनों का सर्वबन्ध नहीं होता, केवल देशबन्ध ही होता है । बन्धन नामकर्म के पन्द्रह भेद हैं
( १ ) औदारिक- औदारिक बन्धन - जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत अर्थात् पहले ग्रहण किए हुए औदारिक पुद्गलों के साथ गृह्यमाण अर्थात् जिनका वर्तमान समय में ग्रहण किया जा रहा हो ऐसे श्रदारिक पुगलों का आपस में मेल हो जावे उसे औदारिक दारिक शरीर बन्धन नामकर्म कहते हैं।
( २ ) औदारिक तैजस बन्धन - जिस कर्म के उदय से औदारिक पुद्गलों का तैजस पुगलों के साथ सम्बन्ध हो उसे औदारिक तैजस बन्धन नामकर्म कहते हैं ।
(३) श्रदारिक कार्मण बन्धन - जिस कर्म के उदय से औदारिक पुद्गलों का कार्मण पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है उसे दारिक कार्मण बन्धन नामकर्म कहते हैं।
औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के पुगलों का परस्पर सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि वे परस्पर विरुद्ध हैं । बन्धन नामकर्म के शेष भेद निम्न लिखित हैं
( ४ ) वैक्रिय वैक्रिय बन्धन ।
( ५ ) वैक्रिय तेजस बन्धन । ( ६ ) वैक्रिय कार्मण बन्धन | (७) आहारक आहारक बन्धन । (८) आहारक तैजस बन्धन । ( 8 ) आहारक कार्मण बन्धन । (१०) औदारिक तैजस कार्मण बन्धन । (११) वैक्रिय तैजस कार्मण बन्धनं । (१२) आहारक तैजस कार्मण बन्धन |