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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवा भाग ४०५ wwwmmmmmmmmmmmmmm - ~~~ ~ r. in हो सकती है। इसलिये अत्यन्त वृद्ध,रोगी या उत्कृष्ट तपस्वी इन तीन के सिवाय अन्य किसी भी निर्ग्रन्थ साधु को गृहस्थ के घर न बैठना चाहिये।
(१७) स्नान त्याग- निर्ग्रन्थ साधु को कच्चे जल से या गर्म जल से स्नान करने का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । स्नान करने से जल के जीवों की विराधना होती है तथा वह फर जाते हुए जल से अन्य जीवों की भी विराधना होती है। इसलिए साधु को अस्नान नामक कठिन व्रत का यावज्जीवन पूर्णतया पालन करना चाहिए । कारण बिना कभी भी देश या सर्व स्नान न करना चाहिए। इसी प्रकार चन्दन केसर भादि सुगन्धित पदार्थ भी साधु को अपने शरीर पर न लगाने चाहिए । ब्रह्मचर्य की दृष्टि से भी साधु को स्नान न करना चाहिए, स्नान काम का अङ्ग माना गया है। कहा भी हैस्नानं मद दर्प करं, कामाझं प्रथमं स्मृतम् । तस्मास्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥
अर्थात्-स्नान मद और दर्प उत्पन करता है। पहला कामाङ्ग माना गया है। यही कारण है कि इन्द्रियों को दमन करने वाले संयमी साधु काम कात्याग कर कभी स्नान नहीं करते। दशवैकालिक तीसरे अध्ययन में स्नान को साधु के लिए अनाचीर्ण बतलाया गया है।
(१८) शोभावर्जन- मलिन एवं परिमित वस्त्रों को धारण करने वाले द्रव्य और भाव से मुण्डित, मैथुन कर्म के विकार से उपशान्त मुनि को अपने शरीर की विभूषा, शोभा और शृङ्गार मादि का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए क्योंकि शरीर की शोभा
और श्रृङ्गारमादि करने से दुस्तर और रौद्र संसार समुद्र में भ्रमण कराने वाले चिकने कर्मों का वध होता है। इसलिये छःकाय मीवों के रक्षक ब्रह्मचारी मुनि को शरीर विभूषा का सर्वथा त्याग