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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २२७ are amrn arraiwwmummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmr~ एक वार सेठजी तीन चार दिन के लिए किसी बाहर गाँव को चले गए। चन्दनवाला को निकाल देने के लिए मला ने इस अवसर को ठीक समझा। उसने सभी नौकरों को घर से बाहर ऐसे कार्यों पर भेज दिया जिससे वे तीन चार दिन तक न लौट सकें। घर का दरवाजा बन्द करके वह चन्दनवाला के पास आई और कहने लगी- तेरी सूरत तो भोली है किन्तु दिल में पापभरा हुश्रा है। जिसे पिता कहती है उसी को पति बनाना चाहती है। जिसे मां कहती है उसकी सौत वनने चली है। पुरुष भी कितने धृत होते हैं, जिसे पुत्री कहते हैं उसी के लिए हृदय में बुरे विचार रखते हैं। अब मैंने सब कुछ देख लिया है। अपनी ऑखों के सामने मैं यह कांड कभी न होने दूंगी । उस दिन सेठजी तुम्हारे मुंह पर हाथ क्यों फेर रहे थे ? चन्दनवाला ने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया-माताजी! मैं आप की पुत्री हूँ। पुत्री पर इस प्रकार सन्देह करना ठीक नहीं है। मैं सच्चे हृदय से आपको माता और सेठजी को पिता मानती हूँ। सेठजी भी मुझे शुद्ध हृदय से अपनी पुत्री समझते हैं । इसके लिए जैसे चाहें आप मेरी परीक्षा ले सकती हैं। __ अच्छा, मैं देखती हूँ तू किस प्रकार परीक्षा देती है। मेरे पति ने तेरे इन केशों को छूआ है इस लिए पहले पहल मैं इन्हें ही दण्ड देना चाहती हूँ। यह कह कर मूला कैंचीले आई और चन्दनवाला के सुन्दर केशों को काट डाला। __अपने सुन्दर और लम्बे केशों के कट जाने पर भी चन्दनवाला पहले के समान ही प्रसन्न थी। उसके मुख पर विषाद की रेखा तक न थी। वह सोच रही थी-यह मेरे लिए हर्ष की बात है यदि केशों के कट जाने मात्र से माताजी का सन्देह दूर हो जाय । मूला उसके प्रसन्न मुख को देख कर और कुपित हो गई। उस
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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