________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२३१
इस प्रकार भावना भारही थी।
उन दिनों श्रमण भगवान् महावीर छमस्थ अवस्था में थे। कैवल्यमाप्ति के लिए कठोर साधना कर रहे थे। लम्बी तथा उग्र तपस्याओं द्वारा अपने शरीर को सुखा डालाथा। एक बार उन्होंने अतिकठोर अभिग्रह धारण किया। उनका निश्चय था
राजकन्या हो, अविवाहिता हो, सदाचारिणी हो, निरपराध होने पर भी जिसके पांवों में बेड़ियाँ तथा हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हुई हों, सिर मुण्डा हुआ हो, शरीर पर काछ लगी हुई हो, तीन दिन का उपवास किए हो, पारणे के लिए उड़द के वाकले सूप मे लिए हो, न घर में हो, न बाहर हो,एक पैर देहली के भीतर तथा दुसरा बाहर हो, दान देने की भावना से अतिथि की प्रतीक्षा कर रही हो, प्रसन्न मुख हो और आखों में आँसू भी हों, इन तेरह बातों के मिलने पर ही आहार ग्रहण करूँगा। अगर ये बातें न मिलें तो आजीवन अनशन है। __ श्राहार की गवेषणा में फिरते हुए भगवान् को पाँच मास पञ्चीस दिन होगए किन्तु अभिग्रह की बातें पूरी न हुई। सभी लोग भगवान की शरीर रक्षा के लिए चिन्तित थे। साथ में उनके कठिन अभिग्रह के लिए आश्चर्यचकित भी थे।
घूमते घूमते भगवान् कौशाम्बी आ पहुँचे। नगरी में आहार की गवेषणा करते हुए धनावह सेठ के घर आए । चन्दनवाला को उस रूप में बैठी हुई देखा । अभिग्रह की और बातें तो मिल गई किन्तु एक बात न मिली-उसकी आँखों में आँसनथे। भगवान् वापिस लौटने लगे।
उन्हें वापिस लौटते देख चन्दनवाला की ऑरखों में ऑसपा गए । वह अपने भाग्य को कोसने लगी कि ऐसे महान् अतिथि आकर भी मेरे दुर्भाग्य से वापिस लौट रहे हैं। भगवान ने अचा