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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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(च) जोव्रतों को जानते हुए भी उनका स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु पालन करते हैं जैसे अनुत्तर विमानवासी देव।
(छ) जो व्रतों को जान कर स्वीकार कर लेते हैं किन्तु पीछे उनका पालन नहीं कर सकते जैसे संविनपातिक। __ सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ग्रहण (अच्छी तरह अंगीकार करना) और सम्यक्पालन से ही व्रत सफल होते हैं। जिन को व्रतों का अच्छी तरह ज्ञान नहीं है, जो व्रतों को विधिपूर्वक ग्रहण नहीं करते और जो व्रतों का पालन नहीं करते वे जैसे तैसे व्रत पाल भी लेवें तो उनसे पूरा फल नहीं होता। उपरोक्त सात प्रकार के अविरतों में से पहले चारअविरत जीव तोमिथ्याष्टिही हैं क्योंकि उन्हें व्रतों का यथार्थज्ञान ही नहीं है। पिछले तीन प्रकार के अविरत जीव सम्यग्दृष्टि हैं क्योंकि वे व्रतों का यथाविधि ग्रहण या पालन न कर सकने पर भी उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि कोई जीव औपशमिक सम्यक्त्व वाले होते हैं और कोई नायिक सम्यक्स वाले होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि जीव व्रत-नियमादि को यथावत् जानते हुए भी स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते,क्योंकि उन्हें अप्रत्याख्यानावरण का उदय रहता है। अपत्याख्यानावरण कषाय का उदय चारित्र के ग्रहण तथा पालन को रोकता है।
(५)देशविरतगुणस्थान-प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो जीव पापजनक क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त न होकर एकदेश से निवृत्त होते हैं वे देशविरत या श्रावक कहलाते हैं, ऐसे जीवों के स्वरूप को देशविरत गुणस्थान कहते हैं । कोई श्रावक एक व्रत को धारण करता है और कोई दो व्रतों को। इस प्रकार अधिक से अधिक व्रत धारण करने वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं जो पापकर्मों कोदो करण तीन योग से छोड़ देते हैं। अनुमति तीन प्रकार की है-प्रतिसेवनानुमति, प्रतिश्रवणानुमति, संवासानुमति।