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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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के द्वारा गच्छपालन में नियुक्त किए जाने पर वे पाँच सौ साधुओं के साथ विहार करने लगे। उनके एक भाई का नाम बाहु था । बाहु मुनि लब्धि वाले और उद्यमी थे। वे दूसरे साधुओं की अशन पान आदि के द्वारा सेवा किया करते थे। दूसरे भाई का नाम सबाहु था। सुबाहु मुनि मन में बिना ग्लानि के स्वाध्याय आदि से थके हुए साधुओं की पगचाँपी आदि द्वारा वैयावच्च किया करते थे। तीसरे और चौथे भाई का नाम पीठ और महापीठ था। वे दिन रात शास्त्रों के स्वाध्याय में लगे रहते थे। ___ एक दिन आचार्य ने बाहु और सुबाहु की प्रशंसा करते हुए कहा-ये दोनों साधुधन्य है जो दूसरे साधुओं की धार्मिक क्रियाओं को अच्छी तरह पूरा कराने के लिए सदा तैयार रहते हैं। यह सुन कर पीठ और महापीठ मन में सोचने लगे- आचार्य महाराज ने लोक व्यवहार के अनुसार यह बात कही है क्योंकि लोक में दूसरे का काम करने वाले की ही प्रशंसा होती है । बहुत बड़ा होने पर भी जो व्यक्ति दूसरे के काम नहीं आता वह कुछ नहीं मानाजाता, मन में ऐसा विचार आने से उन्होंने स्त्री जातिनामकर्म कोवॉध लिया। आयुष्य पूरी होने पर वे पाँचों भाई सर्वार्थसिद्ध विमान में गए। वहाँ से चव कर वैर चक्रवर्ती का जीव भगवान् ऋषभ देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वाहु और सूवाहु भरत और बाहुबली के रूप में उत्पन्न हुए । वाकी दो अर्थात् पीठ और महापीठ ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में उत्पन्न हुए।
(पचाशक सोलहवा) जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में अयोध्या नाम की नगरी थी। वर्तमान हुंडावसर्पिणी के तीसरे आरे के अन्त में वहॉ नाभि राजा नाम के पंद्रहवें कुलकर हुए। उनके पुत्र भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर,प्रथम राजा, प्रथम धर्मोपदेशक और प्रथम धर्म चक्रवर्ती थे। उनकी माता का नाम मरु देवी था।युगलधर्म का उच्छेद