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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पivji ar
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नेमकुमार का हाथी वापिस जा रहा था। कृष्ण वामुदेव महाराज समुद्रविजय तथा यदुवंश के सभी बड़े बड़े व्यक्ति उन्हें समझाने आए किन्तु कुमार नेमिनाथ अपने निश्चय पर भटल थे। वे सांसारिक भोग बिलासों को छोड़ने का निश्चय कर चुके थे। उन्होंने मार्मिक शब्दों में कहना शुरू किया
मुझे राजीमती से द्वेष नहीं है । जो व्यक्ति संसार के सभी प्राणियों को सुखी बनाना चाहता है वह एक राजीमती को दुःख में कैसे डाल सकता है। किन्तु मोह में पड़े हुए संसार के भोले प्राणी यह नहीं समझते कि वास्तविक सुख कहाँ है । क्षणिक भोगों के दास वन कर इन्द्रिय विषयों के गुलाम होकर वे तुच्छ वासनाओं की तृप्ति में ही सुख मानते हैं। उन्हें यह नहीं मालूम कि ये ही इन्द्रिय विषय उनके लिए बन्धन स्वरूप हैं । परिणाम में बहुत दुःख देने वाले हैं।
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संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं- श्रेय और मेय। जो वस्तुएं इन्द्रियों और मन को प्रिय लगती हैं किन्तु परिणाम में दुःख देने वाली हैं वे मे कही जाती हैं । जिनसे आत्मा का कल्याण होता है, इन्द्रियां और मन वाह्य विषयों की ओर जाने से रुक जाते हैं उन्हें श्रेय कहा जाता है । इन्द्रिय और मन के दास वने हुए भाले प्राणीप्रेय वस्तु को अपनाते हैं और अनन्त संसार में रुलते हैं । इस के विपरीत विवेकी पुरुष श्रेय वस्तु को अपनाते हैं और उसके द्वारा मोक्ष के नित्य सुख को प्राप्त करते हैं।
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भगवान् श्ररिष्टनेमि की बातों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि एक हजार यादव संसार को बन्धन समझ कर उन्हीं के साथ दीक्षा लेने को तैयार होगए । श्रीकृष्ण और समुद्रविजय वगैरह प्रमुख यादव भी निरुत्तर होगए और उन्हें रोकने का प्रयत्न छोड़ कर अलग होगए। भगवान् नेमिनाथ सारी बरात को छोड़ कर अपने महल की ओर रवाना हुए।