________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २६५ • •rnmmmmmmmmmmmmmmmmm
द्रौपदी को युधिष्ठिर की यह बात अच्छी न लगी । दुःशासन द्वारा किया गया अपमान उसके हृदय में कॉटे की तरह चुभ रहा था। वह उसका बदला लेना चाहती थी। अपने खुले हुए केशों को हाथ में लेकर द्रौपदी श्रीकृष्ण से कहने लगी- प्रभो आप सन्धि के लिए जारहे हैं । विशाल साम्राज्य के वदले पाँच गाँव देकर कौन सन्धि न करेगा ? उसमें भी जब सन्धि कराने वाले आप सरीखे महापुरुष हों। आपने हमारे भरण पोषण के लिए पॉच गॉवों को पर्याप्त मान कर शान्ति रखना उचित समझा है, किन्तु मैं गाँवों की भूरवी नहीं हूँ। जंगल में रह कर भी मैं अपने दिन प्रसन्नतापूर्वक काट सकती हूँ।मुझे साम्राज्य की परवाह नहीं है। मैं तो अपने इन केशों के अपमान का बदला चाहती है। जिस समय दुष्ट दुःशासन ने इन्हें खींचा था, मैंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक ये केश उसके रक्त से न सींचे जाएंगे तब तक मैं इन्हें न बाँधेगी। क्या मेरे ये केश खुले ही रह जाएंगे? क्या एक महिला का अपमान आपके लिये कोई महत्व नहीं रखता ? भीम ने दुःशासन का वध और दुर्योधन की जंघा चूर चूर करने की प्रतिज्ञा की है। क्या उसकी प्रतिज्ञा अपूर्ण ही रह जायगी ?
दुर्योधन ने हमारे साथ क्या नहीं किया ? जहर देकर मार डालने का प्रयत्न किया, लाख के घर में जला देना चाहा,दुर्वासा मुनि से शाप दिलाने की कोशिश की,हमारा जगह जगह अपमान किया. मेरी लाज छीनने में भी कसर नहीं रक्खी। वनवास तथा गुप्तवास के वाद शत के अनुसार हमें सारा साम्राज्य मिलना चाहिए उसके बदले भाप पाँच गॉव लेकर सन्धि करने जा रहे हैं.क्या यह अन्याय का पोषण नहीं है ? क्या यह पापी दुर्योधन के लिए श्राप का पक्षपात नहीं है ? क्या हमारे अपमानों का यही बदला है ? द्रौपदी की वक्तृता सुन कर सभी लोग दंग रह गए। उन्हें ऐसा