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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भीम को यह बात मालूम पड़ी । भयंकर रूप वना कर वह श्मशान में गया, अर्थी ले जाने वाले लोगों को मार भगाया और द्रौपदी को बन्धन से मुक्त कर दिया।
तेरहवॉवर्षे पूरा होने पर पॉचों पाण्डव प्रकट हुए। विराट राजा और उसकी रानी ने सभी से क्षमा मांगी । द्रौपदी को दिए हुए दुःख के लिए रानी ने पश्चात्ताप किया।
पाण्डव अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुके थे। शत के अनुसार भब राज्य उन्हें वापिस मिल जाना चाहिए था किन्तु दुर्योधन की नीयत पहले से ही बिगड़ चुकी थी। इतने साल राज्य करते करते उसने बड़े बड़े योद्धाओं को अपनी तरफ मिला लिया था। द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा वगैरह बड़े बड़े महारथी उसके पक्ष में होगए थे। राजा होने के कारण सैनिक शक्ति भी उसने बहुत इकट्ठी कर ली थी। उसे अपनी विजय पर विश्वास था। वह सोचता था, पाण्डव इतने दिनों से वन में निवास कर रहे हैं फिर मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं । इन सब बातों को सोच कर उसने राज्य वापिस करने से इन्कार कर दिया।
पाण्डवों को अपने बल पर विश्वास था। दुर्योधन द्वारा किया गया अपमान भी उनके मन में खटक रहा था। इस लिए वे युद्ध के लिए तैयार होगए, किन्तु युधिष्ठिर शान्तिप्रिय थे। वे चाहते थे जहाँ तक हो सके युद्ध को टालना चाहिए। दुर्योधन की इस मनोवृत्ति को देख कर उन्होंने सोचा-यदि अपनी आजीविका के लिए हम लोगों को सिर्फ पाँच गाँव मिल जायँ तो भी गुजारा हो सकता है। यदि इतने पर भी दुर्योधन मान जाय तो रक्तपात रुक सकता है। __ श्रीकृष्ण भी जहॉतक हो सके, शान्ति को कायम रखना चाहते थे। युधिष्ठिर ने अपनीवात श्रीकृष्ण के सामने रक्खी और उन्हीं पर सन्धि का सारा भार डाल दिया।