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________________ श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला २६६ 1 मालूम पड़ने लगा जैसे उसके शरीर में कोई देवी उतर आई हो । सब के सब युद्ध के लिए उत्तेजित हो उठे । पाँच गाँव लेकर सन्धि करना उन्हें अन्याय मालूम पड़ने लगा । श्रीकृष्ण द्रौपदी की बातों को धैर्यपूर्वक सुनते रहे । अन्त में कहने लगे - द्रौपदी! तुमने जो बातें कही हैं वे अक्षरशः सत्य हैं । तुम्हारे साथ कौरवों ने जो दुर्व्यवहार किया है उसका बदला युद्ध के सिवाय कुछ नहीं है । सारी दुनिया ऐसा ही करती है । किन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि अहिंसा में कितनी शक्ति है । हिंसा पाशविक वल है। क्या उसके बिना काम नहीं चल सकता ? सभी शास्त्र हिंसा की अपेक्षा अहिंसा में अनन्तगुणी शक्ति मानते हैं । मैं इस सत्य का प्रयोग करके देखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ तुम दुनिया के सामने यह आदर्श उपस्थित करो कि अहिंसा हिंसा को किस प्रकार दवा सकती है। महाराज युधिष्ठिर का भी यही कहना तुम्हारी पुरानी घटनाओं में सब जगह अहिंसा की जीत हुई है | दुःशासन ने तुम्हें अपमानित करने का प्रयत्न किया । द्रौपदी ! तुम्हीं बताओ इस में हार किस की हुई ? दुःशासन की या तुम्हारी ? वास्तव में पतन किसका हुआ, उसका या तुम्हारा ? यदि उस समय शस्त्र से काम लिया जाता तो पाण्डव प्रतिज्ञाभ्रष्ट हो जाते। ऐसी दशा में पाण्डवों का उज्ज्वल यश मलिन हो जाता । लाक्षागृह और दूसरी सभी घटनाओं में तुम लोगों ने शान्ति से काम लिया और हिंसा द्वारा विजय प्राप्त की । वह विजय सदा के लिए अमर रहेगी और संसार को कल्याण का मार्ग बताएगी। मैं चाहता हॅू तुम उसी प्रकार की विजय फिर प्राप्त करो। खून खराबी द्वारा उस विजय को मलिन न बनाना चाहिए। द्रौपदी ! तुम इन केशों को दिखा रही हो। ये केश तो भौतिक वस्तु हैं। थोड़े दिनों बाद अपने आप मिट्टी में मिल जाएंगे। इन wwwwww WAAAAAWv pan
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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