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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग १६१ annnnnnnnnn warunna anv wwwww । द्रव्य संयम न लेने पर भी उसका अन्तःकरणभाव संयममय था।
थोड़े दिनों बाद भरत छः खंड साधने के लिए दिग्विजय पर चले गए। सन्दरी ने गृहस्थ वेश में रहते हुए भी कठोर तप करने का निश्चय किया। उसी दिन से छः विगयों का त्याग करके प्रति दिन आयम्बिल करने लगी। छः खंड साधने में भरत को साठ . हजार वर्ष लग गए। सुन्दरी तब तक वरावर आयम्बिल करती रही। उसका शरीर बिल्कुल सूख गया। केवल अस्थिरपंजर रह गया।
भरत महाराज छः खंड साध कर वापिस लोटे।सुन्दरीके कृश शरीर को देख कर उन्हें निश्चय हो गया कि उसके हृदय में वैराग्य
ने घर कर लिया है। वह अपने दीक्षा लेने के निश्चय पर अटल । है। भरत चक्रवर्ती अपने मन में सोचने लगे
बहिन सुन्दरीको धन्य है । आत्मकल्याण के लिए इसने घोर तप अंगीकार किया है। ऐसी सुलक्षणा देवियाँ अपने शरीर से मोक्ष रूपी परम पद को प्राप्त करने का प्रयत्न करती हैं और भोगों की इच्छा वाले भोले प्राणी इसी शरीर के द्वारा दुर्गति के कर्म वॉधते हैं। यह शरीर तो रोग, चिन्ता, मल,मूत्र,श्लेष्म वगैरह गन्दे पदार्थों का घर है। अतर वगैरह लगा कर इसे सुगन्धित बनाने का प्रयत्न करना मूर्खता है । गन्दे शरीर के लिये गर्व करना अज्ञानता है। मेरी बहिन को धन्य है जो शरीर और धन दौलत की अनित्यता का खयाल करके मायावी सांसारिक भोगों में नहीं फॅसी और नित्य और अखंड सुख देने वाले संयम को अंगीकार करना चाहती है । सुन्दरी पहले भी दीक्षा लेने को तैयार हुई थी, किन्तु मैंने उसके इस कार्य में बाधा देकर उसे रोक दिया था किन्तु सुन्दरी ने अपने इस तप द्वारा अब मुझे भी सावधान कर दिया है। वास्तव में संसार के क्षणिक सुखों में कोई सार नहीं है। यह सब जानते हुए भी आज मेरी अवस्था ऐसी नहीं है कि मैं दीक्षा