________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
३३
(११) जीविताशा- जीवन की अभिलाषा करना। (१२) मरणाशा-विपत्ति के समय मरण की अभिलाषा (१३) नन्दी-वाञ्छित अर्थ की प्राप्ति। (१४) राग-विद्यमान सम्पत्ति पर राग भाव होना।
(समवायाग ५२ में से) ८३८-चौदह प्रकार से शुभ नामकर्म
भोगा जाता है (१) इष्ट शब्द (२) इष्ट रूप (३) इष्ट गन्ध (४) इष्ट रस (५) इष्ट स्पर्श (६) इष्ट गति (७) इष्ट स्थिति (E) इष्ट लावण्य (8) इष्ट यशः कीर्ति (१०) इष्ट उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम (११)इष्ट स्वर (१२) कान्त स्वर(१३)प्रिय स्वर (१४)मनोज्ञ स्वर शुभ नाम कर्म के उदय से उपरोक्त बातों की प्राप्ति होती है।
(प्रज्ञापना स्त्र, पद २३ ८३६- चौदह प्रकार से अशुभ नामकर्म
__ भोगा जाता है (१) अनिष्ट शब्द (२)अनिष्ट रूप (३) अनिष्ट गन्ध (४)अनिष्ट स्स (५) अनिष्टं स्पर्श (६) अनिष्ट गति (७) अनिष्ट स्थिति (८) अनिष्ट लावण्य (8)अनिष्ट यशः कीर्ति (१०)अनिष्ट उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार,पराक्रम (११) हीन स्वर (१२) दीन स्वर (१३) अमिय स्वर (१४) अमनोज्ञ स्वर। भशुभ नामकर्म के उदय से उपरोक्त बातों की प्राप्ति होती है।
(प्रज्ञपना सूत्र, पद २३) ८४०-आभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद ।
क्रोध, मान आदि की आभ्यन्तर ग्रन्थि भाभ्यन्तर परिग्रह