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श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
में दूसरे का रक्त नहीं बहाया माता किन्तु अपने रक्त को पानी समझ कर उसके द्वारा द्वेष रूपी कलङ्क धोया जाता है। इसलिए धर्म और न्याय की रक्षा के लिए तथा चम्पापुरी का कलङ्क मिटाने के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राण देदेने के लिए भी तुम्हें तैयार रहना चाहिए।
रथ को लेकर वह योद्धा घोर वन में पहुँच गया जहाँ मनुष्यों का आना जाना नहीं था ऐसे दुर्गम तथा एकान्त प्रदेश में पहुँच कर रथ को रोक दिया। रथ के परदे उठाए औरधारिणी को नीचे उतरने के लिए कहा। धारिणी और वसुमती दोनों उतर कर एक वृत्त की छाया में बैठ गईं। __रथीने अपनी बुरीअभिलाषाधारिणी के सामने रक्खी। उसे विविध प्रलोभन दिए, जन्मभर उसका दास बने रहने की प्रतिज्ञा की, किन्तु सतीशिरोमणिधारिणी अपने सतीत्व से डिगने वालीन थी।
उसने रथी से कहा-भाई! अपने वेश और प्राकृति से तुम वीर मालूम पड़ते हो किन्तु तुम्हारे मुँह से निकलने वाली बातें इसके विपरीत हैं। विवाह के समय तुमने अपनी स्त्री से प्रतिज्ञा की थी कि उसके सिवाय संसार की सभी स्त्रियों कोमा या बहिन समझोगे। उस प्रतिज्ञा को तोड़ कर आज वैसी ही प्रतिज्ञा तुम मेरे सामने कर रहे हो । जब तुम एक बार मतिज्ञा तोड़ चुके हो तो तुम्हारी दूसरी प्रतिज्ञाओं पर कौन विश्वास कर सकता है ? क्या वीर पुरुष को इस प्रकार प्रतिज्ञा तोड़ना शोभा देता है ?
विवाह में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार मैं तुम्हारी बहिन हूँ।बहिन के साथ ऐसी बातें करते हुए क्या तुम अच्छे लगते हो?
मैंने अपने विवाह के समय राजा दधिवाहन के सिवाय सभी परुषों को पिता या भाई मानने की प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञा के अनुसार तुम मेरे भाई हो । तुम अपनी प्रतिज्ञा वोड़ दगलो तो भी