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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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देवगति(२) देवानुपूर्वी (३)शुभविहायोगति (४) अशुभविहायोगति (५) सुरभिगन्ध नामकर्म (६) दुरभिगन्ध नामफर्म (७-१४)
आठ स्पर्श (१५-१६)पाँच वर्ण (२०-२४)पाँच रस (२५-२६) पाँच शरीर (३०-३४) पाँच बन्धन (३५-३६) पॉच संघातन (४०)निर्माण नामकर्म (४१-४६) संहनन छः(४७-५२) अस्थिरादि छः (अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशः कीर्ति), (५३-५८) संस्थान छः (५६-६२) अगुरुलघुचतुष्क (६३) अपर्याप्त नामकर्म, (६४) सातावेदनीय या असातावेदनीय, (६५-६७) प्रत्येक, स्थिर और शुभनामकर्म, (६८-७०) तीन अंगोपाङ्ग, (७१) सुस्वर नामकर्म और (७२) नीचगोत्र । द्विचरम समय में ७२ प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर अन्तिम समय में १३ कर्मप्रकृतियाँ वचती हैं। वे इस प्रकार हैं- (१-३) मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु (४-६) त्रस, बादर और पर्याप्तनामकर्म (७) यशाकीर्ति नामकर्म (८) आदेय नामकर्म (8) सुभग नामकर्म(१०) तीर्थङ्कर नामकर्य (११) उच्चगोत्र (१२) पञ्चेन्द्रिय जाति नामकर्म और (१३) सातावेदनीय या असाता वेदनीय इन दोनों में से एक। ___ इन तेरह प्रकृतियों का अभाव चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है और आत्मा निष्कर्म होकर मुक्त हो जाता है।
किसी किसीश्राचार्य का मत है चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में १२ प्रकृतियाँ ही रहती हैं। मनुष्यानुपूर्वी नहीं रहती। दसरी ७२ प्रकृतियों के साथ स्तिथुकसंक्रम द्वारा उसका भी क्षय हो जाता है । उदय में नहीं आए हुए कर्मदलिकों को उसी जाति तथा वरावर स्थिति वाले उदयवर्ती कर्मदलिकों में बदल कर उन्हीं के साथ भोग लेना स्तिवुकसंक्रम कहा जाता है। ऊपर लिखी वारह प्रकृतियों के सिवाय बाकी सब सत्ता में रही हुई प्रकृतियों को