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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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एक प्रतापी, तेजस्वी और पुण्यशाली पुत्र को जन्म दिया । पुत्र जन्म से राजा, रानी तथा प्रजा सभी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। राजाने पुत्र का नाम नारायण रक्खा किन्तु लोगों में वह लक्ष्मण' इस नाम से प्रख्यात हुआ। ये दोनों भाई पृथ्वी पर चन्द्र और सूर्य के समान शोभित होने लगे।
इसके पश्चात् कैकयी की कुक्षि से भरत और मुप्रभा की कृति से शत्रघ्न ने जन्म लिया। योग्य समय पर कलाचार्य के पास सब कलाएं सीख कर चारों भाई फला में प्रवीण हो गये।
एक समय चार ज्ञान केधारक एक मुनिराज अयोध्या में पधारे। राजा दशरथ उन्हें वन्दना नमस्कार करने के लिये गया। मुनिने समयोचित धर्मदेशना दी। राजा ने अपने पूर्वभव के विषय में पूछा। मुनिराज ने राजा को उसका पूर्वभव कह सुनाया जिससे उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को राज्य सौंप कर दीक्षा लेने का निश्चय किया।
राम के राज्याभिषेक की बात सुन कर कैकयी के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। उसने स्वयंवर के समय दिये हुए वरदान को इस समय राजा से मांगा और कहा कि मेरे पुत्र भरत कोराज्य मिले और राम को वनवास । इस दुःखद वरदान को सुन कर राजा को मूर्यो भा गई । जब राम को इस बात का पता लगा तो वे शीघ्र ही वहाँ भाये । शीतल उपचारों से राजा की मूर्छा द्रकर उनकी आज्ञा से वन जाने को तय्यार हुए। सबसे पहले वे माता कैकयी के पास पाये । उसे प्रणाम कर वन जाने की आशामॉगी। इसके पश्चात् वे माता कौशल्या के पास भाये। वन जाने की बात मुन कर उनको प्रति दुःख हुआ किन्तु इस मारेप्रपंच को रचने बाली दासी मन्थरापर और कठिन वरदानको माँगने वालीरानी कैकयी पर उन्होंने जरा भी क्रोध नहीं किया और न उनके प्रति