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श्री मेठिया जैन ग्रन्पमाला
विचार कीजिए । लाखों निदोष मनुष्य आपस में कट कर समाप्त हो जाते हैं। हजारों बहनें विधवा हो जाती हैं। देश नवयुवकों से खाली हो जाता है। चारों ओर बालक, वृद्ध और अबलाभों की करुण पुकार रह जाती है। एक व्यक्ति की लिप्सा का परिणाम यह महान् संहार कभी न्याय नहीं कहा जासकता। हिंसा राक्षसी वृत्ति है। उसे धर्म नहीं कहा जा सकता। आपका जरासा सन्तोष इस भीषण हत्याकाण्ड को बचा सकता है।
शतानीक-मुझे सन्तोष की भावश्यकता नहीं है।राजनीति राजा को सन्तोषी होने का निषेध करती है। पृथ्वी पर वे ही शासन करते हैं जो वीर हैं, शक्तिशाली हैं। क्षत्रियों के लिए तलवार ही न्याय है और अपनी राज्यलिप्सा रूपी भग्नि को सदा प्रज्वलित रखना ही उनका धर्म है।
दधिवाहन को निश्चय हो गया कि शतानीक लोभ में पड़ कर अपनी बुद्धि को खो बैठा है। इस प्रकार की बातें करके वह मुझे युद्ध के लिए उत्तेजित करना चाहता है लेकिन इसके कहने पर क्रोध में आकर विवेक खो बैठना बुद्धिमत्ता नहीं है। गम्भीरतापूर्वक विचार फरके मुझे किसी प्रकार युद्ध को रोकना चाहिए।
दधिवाहन को विचार में पड़ा देख कर शतानीक ने कहाआप सोच क्या कर रहे हैं? यदि शक्ति हो तो हमारा सामना कीजिए। यदि युद्ध से डर लगता है तो आत्मसमर्पण करके हमारी अधीनता स्वीकार कर लीजिए।यदि दोनों बातें पसन्द नहीं हैं तो यहॉक्यों श्राए? सीधाजंगल में भाग जाना चाहिए था। इस प्रकार न्याय की दुहाई देकर अपनी कायरताको छिपाने से क्या लाभ?
दधिवाइन ने निश्चय कर लिया कि जब तक शतानीक का लोभ शान्त न किया जाय, युद्ध नहीं टल सकता। इसके लिए ग्रही उचित है कि मैं राज्य छोड़ कर वन में चला जाऊँ। यदि