________________ श्री जैन सिमान्त वोल सग्रह, पाचवा भाग 421 (8) पुत्र पौत्रादि के बन्धनों में फंसे हुए गृहस्थों को पूर्ण रूप से धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। (8) विचिकादि रोग हो जाने पर बहुत दुःख होता है। (10) गृहस्थ का चित्त सदा संकल्प विकल्पों से घिरा रहता है। (११)गृहस्थावास क्लेश सहित है और संयम क्लेश रहित है। (12) गृहस्थावास बन्धन रूप है और संयम मोक्ष रूप है। (13) गृहस्थावास पाप रूप है और चारित्रपाप से रहित है। (14) गृहस्थों के कामभोग तुच्छ एवं सर्व साधारण हैं। (15) प्रत्येक के पुण्य और पाप अलग अलग है। (16) मनुष्य का जीवन कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चञ्चल है। (१७)मेरे बहुत ही प्रवल पाप कर्मों का उदय है इसीलिये संयम छोड़ देने के निन्दनीय विचार मेरे हृदय में उत्पन्न हो रहे हैं। (18) पूर्वकृत फर्मों को भोगने के पश्चात् ही मोक्ष होता है, बिना भोगे नहीं। अथवा तप द्वारा पूर्वकृत फर्मों का क्षय कर देने पर ही मोत होता है। ये अठारह बातें हैं। इन्हीं का निर्देश अठारह गाथाओं में किया गया है। उनका भावार्थ क्रमशः इस प्रकार है। (1) कामभोगों में आसक्त, गृद्ध एवं मूछित बना हुमा अज्ञानी साधु आगामी काल के विषय में कुछ भी विचार नहीं करता। (2) जिस प्रकार स्वर्ग से चर कर मनुप्य लोक में उत्पन्न होने वाला इन्द्र अपनी पूर्व कीऋद्धि को याद कर पश्चात्ताप करता है उसी प्रकार चारित्र धर्म से भ्रष्ट साधु भी पश्चात्ताप करता है। (3) जन साधु संयम का पालन करता है तब तो सब लोगों का बन्दनीय होता है किन्तु संयम से पतित हो जाने के बाद वह अवन्दनीय होजाता है। जिस प्रकार इन्द्र द्वारा परित्यक्ता देवी