________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला anA ~ ~ ~ . . पश्चात्ताप करती है उसी प्रकार संयम से भ्रष्ट हुआ साधु भी पश्चात्ताप करता है। (4) संयम में स्थिर साधु सब लोगों का पूजनीय होता है, किन्तु संयम से भ्रष्ट हो जाने के बाद वह अपूजनीय हो जाता है। mazासापरता। संयम भ्रष्ट साधु राज्यभ्रष्ट राजा के समान सदा पश्चात्ताप (5) संयम का पालन करता हुना साधु सर्वमान्य होता है किन्तु संयम छोड़ देने के बाद वह जगह जगह अपमानित होता है। जैसे किसी छोटे से गांव में कैद किया हुआ नगर सेठ पश्चात्ताप करता है उसी प्रकार संयमसे पतित साधु भी पश्चात्ताप करता है। (6) जिस प्रकार लोह के कांटे पर लगे हुए मांस को खाने के लिये मछली उस पर झपटती है किन्तु गले में कांटा फंस जाने के कारण पश्चात्ताप करती हुई मृत्यु को प्राप्त करती है, इसी प्रकार यौवन अवस्था के बीत जाने पर वृद्धावस्था के समय संयम से पतित होने वाला साधु भी पश्चात्ताप करता है। जिस प्रकार मछली न तो उस लोह के कांटे को गले से नीचे उतार सकती है और न गले से बाहर निकाल सकती है, उसी प्रकार वह दृद्ध साधू न तो भोगों को भोग सकता है और न उन्हें छोड़ सकता है। यों ही कप्टमय जीवन समाप्त कर मृत्यु के मुँह में पहुँच जाता है। . (7) विपय भोगों के झूठे लालच में फंस कर संयम से गिरने वाले साधु को जब इष्ट संयोगों की प्राप्ति नहीं होती तब बन्धन में पड़े हुए हाथी के समान वारवार पश्चाताप करता है। (8) स्त्री, पुत्र श्रादि से घिरा हुआ और मोह में फंसा हुमा वह संयमभ्रष्ट साधु कीचड़ में फंसे हुए हाथी के समान पश्चात्ताप करता है। (6)संयम से पतित हुभा कोई कोई साधु इस प्रकार विचार करता है कि यदि मैं साधुपना न छोड़ता और वीतराग प्ररूपित