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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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भाग से लेकर पाँचवें भाग तक क्रमशः २१, २०, १६ और १८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। पुरुषवेद, संज्वलन के क्रोध, मान, माया इन प्रकृतियों का बन्धविच्छेद नवें गुणस्थान के पाँच भागों में क्रमशः हो जाता है, इस लिए दूसरे भाग में पुरुषवेद का वन्ध नहीं होता। तीसरे भाग में संज्वलन क्रोध,चौथे में मान तथा पाँचवें में माया का बन्ध नहीं होता। इस प्रकार नवें गुणस्थान के पाँचवें भाग में केवल १८ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
(१०) दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का वन्ध होता है। संज्वलन लोभ का नवें गुणस्थान के अन्त में बन्धविच्छेद हो जाने से दसवें गुणस्थान में बन्ध नहीं होता।
(११-१२-१३ ) ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक केवल सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। दसवें गुणस्थान के अन्त में नीचे लिखीसोलह प्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है
(१-४) दर्शनावरण की चार (५) उच्चगोत्र (६) यशःकीर्ति नामकर्म (७-११) ज्ञानावरण की पांच (१२-१६ ) अन्तराय की पांच । इनके बाद केवल सातावेदनीय बचती है। उसका बन्ध तेरहवें गुणस्थान तक होता है। ऊपर लिखी १६ प्रकृतियों का वन्ध कषाय से होता है। दसवें गुणस्थान से आगे कषाय न होने से उनका बन्ध नहीं होता।
सातावेदनीय का बन्ध भी इन गणस्थानों में केवल योग के कारण होता है। कषाय न होने के कारण उसमें स्थिति या अनुभाव (फल देने की शक्ति) का बन्ध नहीं होता, इस लिए सातावेदनीय कर्म के पुद्गल पहले समय में बँधते हैं, दूसरे समय में वेदे जाते हैं और तीसरे समय में उनकी निर्जरा हो जाती है। उनकी स्थिति केवल दो समयों की होती है।
(१४) चौदहवें गुणस्थान में किसी प्रकृति का वन्ध नहीं होता,