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श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाना
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इस लिए इसे अवन्धक गुणस्थान कहा जाता है । इस गुणस्थान में योगों का भी निरोध हो जाने से कर्मबन्ध का कोई कारण नहीं रहता, इस लिए भी बन्ध नहीं होता। पीछे बताया जा चुका है कि कर्मवन्ध के चार कारण हैं-मिथ्याल, अविरति, कषाय और योग । इनमें से मिथ्याल पहले गणस्थान में ही होता है। इस लिए मिथ्यात्व से बँधने वाली नरक आदि १६ प्रकृतियाँ आगे के किसी गुणस्थान में नहीं बॅधतीं। इसी प्रकार अविरति, कषाय और योगरूप कारण जैसे जैसे दर होते जाते हैं उनसे बँधने वाली प्रकृतियाँ भी कम होती जाती हैं । चौदहवें गुणस्थान में कोई कारण नहीं बचता और इस लिए किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध नहीं होता केवल शरीर का सम्बन्ध रहता है, उससे छूटते ही जीव सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। ___ आयुबन्ध पहले, दूसरे, चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान में ही होता है। सातवें गुणस्थान में वही जीव आयु वॉधता है जिसने छठे गुणस्थान में देवायुवन्ध को पूरा नहीं किया है।
उदयाधिकार विपाक का समय आने पर कर्मफल को भोगना उदय कहलाता है। उदय के योग्य १२२ कर्म प्रकृतियाँ हैं। बन्ध १२० प्रकृतियों का ही होता है। मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय का बन्ध नहीं होता। मिथ्यात्वमोहनीय ही परिणाम-विशेष से जब अर्द्धशुद्ध या शुद्ध हो जाता है तो मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय के रूप में उदय में आता है, इस लिए उदय में बन्धकी अपेक्षा दो प्रकृतियाँ अधिक है।
(१)पहले गुणस्थान में ११७ कर्मप्रकृतियों का उदय होता है। १२२ में से नीचे लिखी पॉच कम हो जाती हैं- (१) मिश्र मोहनीय (२) सम्यक्त्व मोहनीय (३) आहारक शरीर (४) आहारक