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श्री जैन सिद्धान्त बोन संपह, पांचवां भाग
अंगोपांग और (५) तीर्थङ्कर नामकर्म। इन पाँच प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में नहीं होता।
(२) दूसरे गुणस्थान में १११ कर्म प्रकृतियों का उदय होता है। पहले गुणस्थान की ११७ प्रकृतियों में से नीचे लिखी छः कम हो जाती हैं- (१) सूक्ष्म नामकर्म (२) अपर्याप्त नामकर्म (३) साधारण नामकर्म (४) आतप नामकर्म (५) मिथ्यात्व मोहनीय और (६) नरकानुपूर्वी।
(३) तीसरे गुणस्थान में १०० प्रकृतियों का उदय होता है। पूर्वोक्त १११ में से नीचे लिखी १२ प्रकृतियॉ कम करने से बह रह जाती हैं और उनमें मिश्रमोहनीय मिला देने से कुल १०० प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है। बारह प्रकृतियॉइस प्रकार हैं- अनन्तानुबन्धी चार कषाय (५) स्थावर नामकर्म (६-६) एकेन्द्रिय तथा तीन विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) (१०) तिर्यश्चानुपूर्वी (११)मनुष्यानुपूर्वी और (१२) देवानुपूर्वी।
(४) चौथे गुणस्थान में १०४ प्रकृतियों का उदय होता है। तीसरे गुणस्थान की १०० प्रकृतियों में से मिश्रमोहनीयका उदय चौथे गुणस्थान नहीं होता। वाकी प्रकृतियों में नीचे लिखी पाँच और मिला दी जाती हैं-(१)सम्यक्त्व मोहनीय (२) देवानुपूर्वी (३)मनुष्यानुपूर्वी (४)तियश्चानुपूर्वी और (५)नरकानुपूर्वी।
(५)पॉचवें गुणस्थान में ८७ प्रकृतियों का उदय होता है। ऊपर लिखी १०४ में से नीचे लिखी १७ कर्म प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं(१) देव गति (२) नरक गति (३-६) चार आनुपूर्वी (७) देवायु (८) नरकायु (8) वैक्रिय शरीर (१०) वैक्रिय अंगोपांग (११) दुर्भग नामकर्म (१२) अनादेय नामकर्म (१३) अयशःकीर्ति नाम कर्म (१४-१७) अप्रत्याख्यानावरण के चार कपाय । इन १७ प्रकृतियों को घटा देने पर बाकी बची हुई ८७ प्रकृतियों का उदय