________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवां भाग 485 घासेसणाए चिन्ति सययं निवइए य पेहाए // 10 // अदुवा माहणं च समणं वा गामपिण्डोलगं च अतिहिं वा / सोचागमृसियारिं वा कुक्कुरं वावि विहियं पुरो // 11 // वित्तिच्छेयं वजन्तो तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो। मन्दं परिक्कमे भगवं अहिंसमाणो घासमेसित्था // 12 // अवि मुइयं वा सुक्कं वा सीयं पिंडं पुराणकुम्मासं / अदु वुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए // 13 // अवि भाई से महावीरे आसरणत्थे अकुक्कुए झाणं / उडढं अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने // 14 // अकसाई विगयमेही य सदरूवेस अमुच्छिए झाई / छउमत्थोऽवि परक्कममाणो न पमायं सइंपि कवित्था // 15 // सयसेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए। अभिनिव्वुडे अमाइन्ले श्रावकहं भगवं समियासी // 16 // एस विही अणुक्कतो माहणेण मईमया। बहसो अपडिन्नेणं भगवया एवं रीयंति // 17 // उत्तराध्ययन अध्ययन 6 (बोल नम्बर 867) जावंतऽविज्जा पुरिसा, सचे ते दुक्खसंभवा / लुप्पंति वहुसो मूढा, संसारंमि अणंतए // 1 // समिक्ख पंडिए सम्हा, पास जाइपहे वह / अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मित्तिं भूएहिं कप्पए // 2 // माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पत्ता य ओरसा / नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुरणा // 3 //