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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला mmmmmmon mrom mmmmmmmmmmm rrrrrrrror आदि जीव भी हैं। इष्ट विषय में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति मन के व्यापार बिना नहीं हो सकती और मन से विचार करना ही संज्ञा है। इस प्रकार का विचार द्वीन्द्रिय आदि जीवों के भी होता है इस लिए वे भी संज्ञी हैं। संज्ञा का हेतु अर्थात कारण यानिमित्त होने के कारण ये हेतूपदेश संज्ञी कहे जाते हैं । कालिक्युपदेश संज्ञी भूत, भविष्यत् आदि लम्बे समय का विचार कर सकता है। हेतूपदेश संज्ञी केवल वर्तमान काल का ही विचार करता है। यही इन दोनों में भेद है । जिसे वर्तमान काल के विषय में भी सोचने की शक्ति नहीं होती वह हेतूपदेश से भी असंज्ञी कहा जाता है। जैसे पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव । एकेन्द्रिय जीवों की कभी विचार पूर्वक इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट से निवृत्ति नहीं होती।
आहार आदि संज्ञाएं भी उनके बहुत अस्पष्ट होती हैं, इस लिए वे संज्ञी नहीं कहे जाते।
दृष्टिवादोपदेश संज्ञी- चायोपशमिक ज्ञान वाला सम्यग्दृष्टि जीव दृष्टिवादोपदेश संज्ञी कहा जाता है । सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग ज्ञानी होने से रागादि दोषों को दूर करने का प्रयत्न करता है। जो दोषों को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता वह सम्यग्दृष्टि नहीं है क्योंकि जिस तरह सूर्य की किरणों के सामने अन्धेरा नहीं ठहर सकता इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान के सामने रागादि दोष नहीं ठहर सकते। इस अपेक्षा से मिथ्याष्टिको असंही कहा जाएगा। __ संज्ञी के तीन भेदों के अनुसार श्रुत के भी तीन भेद हैं । गर्भज संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का श्रुतज्ञान, द्वीन्द्रियादि का श्रुतज्ञान तथा सम्यग्दृष्टि का श्रुतज्ञान। इनमें अन्तिम सम्यग्दृष्टि का श्रुतज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । वाकी मिथ्या है।
(४) असंझिश्रुत- संज्ञिश्रुत से उल्टा असंज्ञिश्रुत है। इसके भी भेदप्रभेद संज्ञिश्रुत के समान जानने चाहिएं।