________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवाँ भाग
G
(५) सम्यक् श्रुत- घाती कर्मों के सर्वथा क्षय होने से उत्पन्न होने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक, संसार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए तीनों लोकों द्वारा आशापूर्ण दृष्टि से देखे गए, महिमा गाये गए और पूजे गए, वर्तमान, भूत और भविष्यत् तीनों कालों के ज्ञाता, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहन्त भगवान् द्वारा प्रणीत बारह अंगों वाले गणिपिटक सम्यक्श्रुत हैं। वे इस प्रकार हैं(१) आचारांग (२) सुत्रकृतांग (३) स्थानांग (५) भगवती
(६) ज्ञाताधर्मकथाङ्ग (६) अनुत्तरौपपातिक
(४) समवायांग (७) उपासक दशाङ्ग (८) अन्तकृद्दशाङ्ग (१०) प्रश्न व्याकरण ( ११ ) विपाक सूत्र (१२) दृष्टिवाद । इनका विषय 'ग्यारहवें बोल संग्रह के ७७६ वें बोल में दिया है। इसी प्रकार उपाङ्ग सूत्र, मूल मूत्र, छेद सूत्र, श्रावश्यक सूत्र आदि भी अङ्गों के अनुकूल अर्थ का प्रतिपादन करने से सम्यक्श्रुत हैं। ज्ञानमात्र की विवक्षा करके इन्हें द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा सम्यक् श्रुत कहा जाता है । ज्ञानवान् की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि द्वारा ग्रहण करने पर सम्यक् श्रुत तथा मिथ्यादृष्टि द्वारा ग्रहण करने पर मिथ्या श्रुत हैं।
चौदह पूर्वधारी के द्वारा ग्रहण किए गये आगम सम्यक्श्रुत ही हैं। दस पूर्वधारी द्वारा ग्रहण किए गए भी सम्यक्श्रुत ही हैं। उससे नीचे भजना है अर्थात् कुछ कम दस पूर्वधारी के द्वारा ग्रहण किए गए सम्यक्त भी हो सकते हैं और मिथ्याश्रुत भी, क्योंकि कुछ कम दस पूर्व तक का ज्ञान मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों को हो सकता है । सम्यग्दृष्टि द्वारा ग्रहण किए जाने पर वे आगम सम्यक् श्रुत हो जाते हैं और मिथ्यादृष्टि द्वारा ग्रहण किए जाने पर मिथ्याश्रुत ।
(६) मिथ्या श्रुत - मिध्यादृष्टियों के द्वारा अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से कल्पना किए गए शास्त्र मिध्याश्रत हैं। जैसे- घोटकमुख, नागसूक्ष्म, शकुनरुत आदि । ये शास्त्र भी मिथ्यादृष्टि के द्वारा मिथ्या