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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रूप में ग्रहण किए जाने के कारण मिथ्याश्रुत हैं । सम्यग्दृष्टि द्वारा सम्यग्रूप से गृहीत होने पर सम्यग्श्रुत हैं, अथवा जिस मिथ्यादृष्टि के लिए ये सम्यक्त्व का कारण बन जायें उसके लिए सम्यक्श्रुत ही हैं क्योंकि कुछ मिथ्यादृष्टि इन पुस्तकों से सार तथा मोक्षमार्ग के लिए उपयोगी अंश को ग्रहण करके मिथ्या अंश को छोड़ सकते हैं। वे उसी से संसार की असारता तथा आत्मा की अमरता को जान कर सम्यगज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
(७-८-६-१७) सादि,सपर्यवसित, अनादि तथा अपयवसित श्रुत-बारह अङ्ग पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित श्रुत हैं । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादि और अपयवसित हैं। सम्यक्श्रुत संक्षेप से चार प्रकार का है(१) द्रव्य से (२) क्षेत्र से ( ३) काल से (४) भाव से।
द्रव्य से एक पुरुष की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित (सान्त) है क्योंकि कोई जीव अनादि काल से समकिती नहीं होता। सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद ही उसका श्रुत सम्यक्श्रुत कहा जाता है, अथवा जब वह शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ करता है, तभी सम्यक् श्रुतकी आदि होती है । इस लिए एक व्यक्ति की अपेक्षा सम्यक श्रत सादि है। एक वार सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर भी मिथ्यात्व आने पर, प्रमाद के कारण, भावों के मलिन होने से, धर्म के प्रति ग्लानि होने से या देवलोक में चले जाने से श्रुतज्ञान विस्मृत हो जाता है, अथवा केवलज्ञान की उत्पत्ति होने से श्रुतज्ञान उसमें समाविष्ट हो जाता है। इसलिए यह सपर्यवसित अर्थात् सान्त है। तीनों काल के पुरुषों की अपेक्षा अनादि, अनन्त है क्योंकि ऐसा कोई समय न हुआ, न होगा जब कोई सम्यक्त्वधारी जीवन हो।
क्षेत्र से पाँच भरत और पाँच ऐरावतों की अपेक्षासादि और सपर्यवसित है क्योंकि इन क्षेत्रों में अवसर्पिणी काल में सुषम