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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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गुणस्थानों का स्वरूप ऊपर बताया जा चुका है। अब उनमें कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता को बताते हैं
वधाधिकार जीव के साथ नए कर्मों का सम्बन्ध होना बन्ध है। कर्मों की कुल १४८ प्रकृतियाँ हैं। यथा- ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की है, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुष्य की ४, नामकर्म की ६३,गोत्र की २, अन्तराय की ५। इन १४८ प्रकृतियों के नाम, स्वरूप व विशेष विस्तार इसके तीसरे भाग के वोल नं० ५६० में दिया है । इनमें वन्ध-योग्य प्रकृतियाँ १२० हैं। वन्धन नामकर्म तथा संघातन नामकर्म की ५-५ प्रकृतियाँ शरीर नामकर्म में ही गिन ली है तथा वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श की एक एक प्रकृति गिनी है । सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय को इन में नहीं गिना है। इस प्रकार २८प्रकृतियाँ घटने से १२० रह जाती हैं। नीचे १२० प्रकृतियों के अनुसार वन्ध आदि वताए जाएंगे।
(१) पहले गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म, आहारक शरीर और आहारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्मको छोड़कर बाकी ११७प्रकृतियों का बन्ध होता है। इसका कारण यह है कि तीर्थङ्कर नामकर्म का वन्ध सम्यक्त्व वाले जीव के ही होता है और आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक अङ्गोपाङ्ग नामक) का बन्ध अप्रमत्त संयम से ही होता है। मिथ्यादृष्टि जीवों में ये दोनों बात नहीं होती क्योंकि चौथे गुणस्थान से पहले सम्यक्त्व और सातवेंगुणस्थान से पहले अप्रमत्तसंयम नहीं होता।उक्त तीन प्रकृतियों को छोड़ कर शेष प्रकृतियों का वन्ध मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग इन चारों कारणों से होता है। मिथ्यात्वगुणस्थान में इन चारों का सद्भाव रहने से वहाँ यथासम्भव ११७प्रकृतियों का वन्ध होता है।
(२) साखादन गुणस्थान में १०१ कर्म प्रकृतियों का बन्ध