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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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होता है। इसमें नीचे लिखी १६ प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं-नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु), जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय जाति,दीन्द्रिय जाति,त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जाति),स्थावर चतुष्क (स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म
और साधारण नामकर्म) इस प्रकार ११ हुई। इनके सिवाय (१२) इंडक संस्थान (१३) आतप नामकर्म(१४)सेवात संहनन (१५) नपुंसकवेद और (१६) मिथ्यात्व मोहनीय । इन सोलह प्रकृतियों का वन्धविच्छेद मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्त में ही हो जाता है, इस लिए दूसरे गुणस्थान में १०१ प्रकृतियाँ ही बँधती हैं।
(३) तीसरे गुणस्थान में ७४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । दूसरे गुणस्थान के अन्त में नीचे लिखी २५ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद होजाता है-तिर्यञ्चत्रिक (तिर्यञ्चगति,तिर्यश्चानुपूर्वी और तिर्यञ्चायु), स्त्यानगृद्धित्रिक (निद्रानिद्रा, प्रचलापचला और स्त्यानगृद्धि),दुर्भगत्रिक (दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय नामकर्म) बीच के चार संहनन तथा चार संस्थान, नीच गोत्र, उद्योत नाम कर्म, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद, अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क । दूसरे गुणस्थान के बाद इन पच्चीस प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता इस लिए आगे के गुणस्थानों में केवल ७६ प्रकृतियॉ बचती हैं। उनमें भी तीसरे गुणस्थान में मनुप्यायु और देवायु का बन्ध नहीं होता। इस लिए ७४ प्रकृतियाँ ही वचती हैं।
नरकत्रिक से लेकर मिथ्यालमोहनीय पर्यन्त १६कर्म प्रकृतियाँ अत्यन्त अशुभ हैं। प्रायः नारकी,एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीवों के ही होती हैं और मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से ही बंधती हैं।
तिर्यञ्चत्रिक से लेकर अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का वन्ध । अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय से होता है। अनन्तानुवन्धी कपाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान में ही होता है आगे नहीं,