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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
'सुष्ठु दत्तं गुरुणा, दुष्टु प्रतीच्छितं कलुषितान्तरात्मना'
अर्थात्- गुरु के द्वारा अच्छे भावों से दिया गया आगम बुरे भावों से ग्रहण करना । ऐसा करने से अतिचारों की संख्या चौदह के बजाय तेरह ही रह जाती है। ___ मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित, आगमोदय समिति द्वारा विक्रम संवत १९७६ में प्रकाशित हरिभद्रीयावश्यक टिप्पणी. पृष्ठ १८ में नीचे लिखे अनुसार खुलासा किया है
शङ्का- ये चौदह पद तभी पूरे हो सकते हैं जब 'मुह दिण्णं दुह पडिच्छियं' ये दो पद अलग अलग अशातना (अतिचार)के रूप में गिने जाएं, किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि 'मुष्ठु दत्तं' का अर्थ है ज्ञान को भली प्रकार देना और यह अशातना नहीं है।
उत्तर- यह शङ्का तभी हो सकती है जब सुह शब्द का अर्थ शोभन रूप से या भली प्रकार किया जाय किन्तु यहाँ इस का अर्थ भली प्रकार नहीं है। यहाँ इसका अर्थ अतिरेक अर्थात् अधिक है अर्थात् थोड़े श्रुत के लिए योग्य पात्र को अधिक पढ़ाना ज्ञान की अशातना (अतिचार) है।।
(११) अकाले को सज्झायो-जिस मूत्र के पढ़ने का जो काल न हो उस समय उसे पढ़ना। सूत्र दो प्रकार के हैं-कालिक
और उत्कालिक । जिन सूत्रों को पढ़ने के लिए प्रातः काल,सायझाल आदि निश्चित समय का विधान है वे कालिक कहे जाते हैं। जिन के लिए समय की कोई मर्यादा नहीं है वे उत्कालिक कहे जाते हैं। कालिक सूत्रों को उनके लिए निश्चित समय के अतिरिक्त पढ़ना अतिचार है। (१२) कालेन को सज्झाओ-जिस सूत्र के लिए जो काल निश्चित किया गया है उस समय खाध्याय न करना। (१३) असज्झाए सज्झाओ-असज्झाय अर्थात् ऐसा कारण