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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
भाजन सि
(३) हीणक्खरियं-हीनाक्षर अर्थात् इस तरह पढ़ना जिससे कोई अक्षर छूट जाय।
(४) अञ्चकवरियं-अधिकाक्षर अर्थात् पाठ के बीच में कोई अत्तर अपनी तरफ से मिला देना।
(५) पयहीणं-किसी पद को छोड़ देना । अक्षरों के समूह को पद कहते है जिसका कोई न कोई अर्थ अवश्य हो।
(६) विणयहीणं-विनय हीन अर्थात् शास्त्र तथा शास्त्र पढ़ाने वाले का समुचित विनय न करना ।
(७) योसहीणं- घोषहीन अर्थात् उदात्त, अनुदात्त,स्वरित, सानुनासिक और निरनुनासिक आदि घोषों से रहित पाठ करना। उदात्त-ऊँचे स्वर से पाठ करना। अनुदात्त-नीचे स्वर से पाठ करना। स्वरित-मध्यम स्वर से पाठ करना। सानुनासिक-नासिका और मुख दोनों से उच्चारण करना। निरनुनासिक-विना नासिका के केवल मुख से उच्चारण करना। किसी भी स्वर या व्यञ्जन का घोष के अनुसार ठीक न पढ़ना घोषहीन दोप है।
(८) जोगहीणं- योग हीन अर्थात् सूत्र पढ़ते समय मन, वचन और कायाको जिस प्रकार स्थिर रखना चाहिए उस प्रकार से न रखना । योगों को चञ्चल रखना,अशुभ व्यापार में लगाना और ऐसे प्रासन से बैठना जिससे शास्त्र की अशातना हो योगहीन दोष है।
(B) सुहृदिन्नं-शिष्य में शास्त्र ग्रहण करने की जितनी शक्ति है उससे अधिक पढ़ाना । यहाँ सुष्टु शब्द का अर्थ है शक्तिया योग्यता से अधिक। (१०) दुपडिच्छियं-आगम को बुरे भाव से ग्रहण करना।
नोट- हरिभद्रीयावश्यक में 'मुहदिन्नं दुपडिच्छियं' इन दोनों पदों को एक साथ रक्खा है और उसका अर्थ किया है