________________ 124 श्री मेठिया जैन प्रन्पमाला (16 ) साधु को संयम के प्रति जव अरुचि उत्पन्न हो उस समय उसे ऐसा विचार करना चाहिए कि मेरा यह अरतिजन्य दाख अधिक दिनों तक नहीं रहेगा क्योंकि जीव की विषयवासना अशाश्वत है। यदि शरीर में शक्ति के रहते हुए यह नष्ट न होगी तो वृद्धावस्था आने पर अथवा मरने परतो अवश्य नष्ट हो जायगी। (१७)जिस मुनि की आत्मा धर्म में दृढ़ होती है,अवसर पड़ने पर वह अपने प्राणों को धर्म पर न्योछावर कर देता है किन्तु संयम मार्ग से विचलित नहीं होता।जिस प्रकार प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु भी समेरु पर्वत को फम्पित नहीं कर सकती उसी प्रकार चञ्चल इन्द्रियाँ भी उक्त मनि को धर्म से विचलित नहीं कर सकीं। (18) बुद्धिमान् साधु को पूर्वोक्त रीति से विचार करके ज्ञान और विनय आदि लाभ के उपायों को जानना चाहिए और मन, वचन, काया रूप तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिन वचनों का यथावत् पालन करना चाहिए। (दशवकालिक पहली चूलिका)