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मी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
(५) द्रौपदी
प्राचीन काल में चम्पा नाम की नगरी थी। उसके बाहर उत्तर पूर्व दिशा अर्थात् ईशान कोण में सुभूमिभाग नाम का उद्यान था ।
चम्पा नगरी में तीन ब्राह्मण रहते थे- सोम, सोमदत्त और सोमभूति । वे तीनों भाई भाई थे। तीनों धनाढ्य, वेदों के जानकार तथा शास्त्रों में प्रवीण थे। तीनों के क्रमशः नागश्री, भूतश्री और यक्षश्री नाम वाली तीन भार्याएं थीं। तीनों सुकोमल तथा उन ब्राह्मणों को अत्यन्त प्रिय थीं। मनुष्य सम्बन्धी भोगों को यथेष्ट भोगती हुई कालयापन कर रही थीं।
एक वार तीनों भाइयों ने विचार किया- हम लोगों के पास बहुत धन है । सात पीढ़ी तक भी यदि हम बहुत दान करें तथा बहुत वॉटें तब भी समाप्त नहीं होगा, इस लिए प्रत्येक को वारी वारी से विपुल शन पान आदि तैयार कराने चाहिए और सभी को वहीं एक साथ भोजन करना चाहिए। यह सोच कर वे सब बारी बारी से प्रत्येक के घर भोजन करते हुए आनन्द पूर्वक रहने लगे ।
एक बार नागश्री के घर भोजन की बारी आई। उसने विपुल प्रशन पान आदि तैयार किए । शरद् ऋतु सम्बन्धी अलाबु (तुम्बा या घीया) का तज, इलायची वगैरह कई प्रकार के मसाले डाल कर शाक बनाया | तैयार हो जाने पर नागश्री ने एक बूँद हाथ में लेकर उसे चखा । वह उसे खारा, कड़वा, अखाद्य और अभक्ष्य मालूम पड़ा | नागश्री बहुत पश्चात्ताप करने लगी। कड़वे शाक को कोने में रख कर उसने मीठे अलावु (तुम्बा या घीया) का शाक बनाया। सभी ने भोजन किया और अपने अपने कार्य में मवृत्त हो गए ।
उन दिनों धर्मघोष नाम के स्थविर मुनि अपने शिष्य परिवार
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