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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ८५ mmmmmmwwwxn www ~ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwr अनन्तानुबन्धी कषाय के अवशिष्ट अनन्तवें भागको मिथ्यात्व में डाल करदोनों का एक साथ तय करता है। इसके बाद मिश्रमोहनीय और समकित मोहनीय का क्षय करता है । आठवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के क्षय का प्रारम्भ करता है। इन आठ प्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने से पहले ही नवें गुणस्थानको प्रारम्भ कर देता है और उसी समय नीचे लिखी १६ प्रकृतियों का तय करता है-- (१) निद्रानिद्रा (२) प्रचलाप्रचला (३) स्त्यानगृद्धि (४) नरक गति (५) नरकानुपूर्वी (६) तिर्यञ्च गति (७) तिर्यञ्चानुपूर्वी (८) एकेन्द्रिय जाति नामकर्म (8) द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म (१०) त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म (११) चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म (१२) आतप (१३) उद्योत (१४) स्थावर (१५) सूक्ष्म (१६) साधारण । इनके बाद अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के बाकी बचे हुए भाग का क्षय करता है। तदनन्तर क्रम से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य आदि छः, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध,संज्वलन मान और संज्वलन माया का तय करता है और संज्वलन लोभ का क्षय दसवें गुणस्थान में करता है। (१३) सयोगी केवली गुणस्थान-जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय चार घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया है उनको सयोगी केवली कहते हैं और उनके स्वरूप-विशेष को सयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं । योगकाअर्थ है आत्मा की प्रवृत्ति या व्यापार प्रवृत्ति या व्यापार के तीन साधन हैं, इस लिए योग के भी तीन भेद हैं- मनो योग, वचन योग और काय योग। किसी को मन से उत्तर देने में केवली भगवान् को मन का उपयोग करना पड़ता है। जिस समय कोई मनःपर्ययज्ञानी अथवा अनुत्तर विमानवासी देव भगवान् को शब्द
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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