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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
हमें आपके पास भेजा है। आप हाथी पर चढ़े बैठे हैं। जरा नीचे उतरिए। आपने राज्य का लोभ छोड़ कर संयम तोधारण किया किन्तु छोटे भाइयों को वन्दना न करने का अभिमाना गया । इसी कारण इतने दिन ध्यान में खड़े रहने पर भी आपको केवल ज्ञान नहीं हुआ। इस लम्बे और कठोर ध्यान से श्रापकाशरीर कैसा कृश हो गया है। पक्षियों ने श्रापके कन्धों पर घोंसले वना लिए। डाँसों, मच्छरों और मक्खियों ने शरीर को चलनी बना दिया किन्तु आप ध्यान से विचलित न हुए। ऐसा उग्र तप करते हुए भीआपने अभिमान को आश्रय क्यों दे रक्खा है? यह अभिमान आपकी महान् करणी को सफल नहीं होने देता।
साध्वी वचन सुनी करी,चमक्या चित्त मझारोरे । हय, गय, रथ, पायक छांडिया, पर चढियो अहंकारो रे ॥ वैरागे मन बालियो, मूक्यो निज अभिमानो रे। चरण उठायो वन्दवा, पाया केवल ज्ञानो रे ॥
अपनी बहिनों के सन्देश को सुन करबाहुवली चौंक पड़े। मन ही मन कहने लगे क्या मैं सचमुच हाथी पर बैठा हूँ? हाथी, घोडे, राज्य, परिजन आदि सब को छोड़ कर ही मैंने दीक्षा ली थी। फिर हाथी की सवारी कैसी ? हाँ अब समझ में आया। मैं अहंकार रूपी हाथी पर बैठा हूँ। मेरी बहिनें ठीक कह रही हैं। मैं कितने भ्रम में था। छोटे और बड़े की कल्पना तो सांसारिक जीवों की है । आत्मा अनादि और अनन्त है। फिर उसमें छोटा कौन और बड़ा कौन ? आत्मजगत् में वही बड़ा है जिसने आत्मा का पूर्ण विकास कर लिया है । संसारावस्था में छोटे होने पर भी मेरे भाइयों ने आत्मा का पूर्ण विकास कर लिया है। मेरी आत्मा में अव भी अहङ्कार भरा हुआ है, बहुत से दोप हैं । इस लिए वास्तव में वे ही मुझ से बड़े हैं। मुझे उन्हें नमस्कार करना चाहिए।