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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पांचवां भाग
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पठनपाठन) और कृषि (खेती) तथा आजीविका के दूसरे साधन रूप कर्म अर्थात् व्यवसाय हों उन्हें कर्मभूमि कहते हैं। कर्मभूमियाँ पन्द्रह हैं अर्थात् पन्द्रह क्षेत्रों में उपरोक्त कर्म होते हैं- पॉच भरत, पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेह।
(१-५)पॉच भरत-जम्बूद्वीप में एक धातकीखण्ड में दो और पुष्कराई द्वीप में दो। इस प्रकार पॉच भरत हो जाते हैं।
(६-१०) पॉच ऐरवत- जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और पुष्करार्द्ध में दो। इस प्रकार पाँच ऐरवत हो जाते हैं।
(११-१५) पाँच महाविदेह- जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और पुष्करार्द्ध मेंदो। इस प्रकार कुल ५ महाविदेड हो जाते हैं। ___ उपरोक्त पन्द्रह क्षेत्रों में से जम्बूद्वीप में तीन क्षेत्र हैं-१भरत १ ऐरवत और १ महाविदेह । धातकीखण्ड में छः क्षेत्र हैं- २ भरत २ ऐवत और दो महाविदेह । इसी प्रकार पुष्करार्द्ध में भी ६ क्षेत्र हैं। कुल मिलाकर पन्द्रह हो जाते हैं ।
(पनवणा पद १ सूत्र ६३) (भगवती शतक २० उद्देशा ८) ८५६- परमाधार्मिक पन्द्रह ___ पापाचरण और क्रूर परिणामों वाले असुरजाति के देव जो तीसरी नरक तक नारकी जीवों को विविध प्रकार के दुःख देते हैं वे परमाधार्मिक कहलाते हैं। वे पन्द्रह प्रकार के होते है
(१) अम्ब (२) अम्बरीष (३) श्याम (४) शबल (५) रौद्र (६) उपरौद्र (७) काल (८) महाकाल (8) असिपत्र (१०) धनुः (११)कुम्भ (१२) वालुका (१३) वैतरणी (१४) खरस्वर और (१५) महाघोप।
इनके भिन्न भिन्न कार्य दूसरे भाग, बोल नं० ५६० (नरक सात पृष्ठ ३२४ प्रथमावृत्ति) में दिए जा चुके हैं।
(समवायॉग १५ समवाय)