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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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८६०- कर्मादान पन्द्रह
अधिक हिंसा वाले धन्धों से आजीविका कमाना कर्मादान है अथवा जिन कार्यों से अधिक कर्मबन्ध हो उन्हें कर्मादान कहते हैं।
शास्त्र में श्रावकों का वर्णन करते हुए कहा हैअप्पारंभा, अप्पपरिग्गहा, धम्मिया, धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई, धम्मप्पलोड्या,धम्मप्पज्जलणा, धम्मसमुदायारा,धम्मेण चेव वित्तिकप्पेमाणा विहरंति।
(उववाह सूत्र ४१) (सूयगडांग श्रुतस्कन्ध २ मध्ययन २) अर्थात्-श्रावक अल्प आरम्भ वाले,अल्प परिग्रह वाले,धार्मिक, धर्म के अनुसार चलने वाले, धर्म में स्थिर, धर्म के कथक (धर्मोपदेशक), धर्म में होशियार, धर्म के प्रकाश वाले, धार्मिक प्राचार वाले और धर्म से ही आजीविका उपार्जन करने वाले होते हैं। ___ इस लिए श्रावक को पापकारी व्यापार न करने चाहिए। श्रावक को कर्मादान जानने चाहिए किन्तु आचरण न करना चाहिए। कर्मादान पन्द्रह हैं
(१)इंगाल कम्मे (अंगारकर्म)-कोयले बनाकर उनके धन्ध से आजीविका कमाना। ईंट वगैरह पकाना भी अंगार कर्म है क्योंकि उसमें भी अग्निकाय का महारम्भ होता है।
(२) वणकम्मे (वन कर्म)-- जंगल के वृक्ष काट कर उन्हें वेचना और इस प्रकार आजीविका चलाना। (उपासकदशाग)
भगवती सूत्र के पाठवें शतक के पाँचवें उद्देशे की टीका में दिया है-'एवं वीजपेषणाद्यपि प्रथोत् इसी प्रकार वीजा का पोसना वगैरह भी वनकर्म है।
(३) साडी कम्मे (शाकट कर्म)- गाड़ियों के बनाने,वेचने और भाड़े पर चलाने का धन्धा।