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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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काभान होता है।रुचक प्रदेशों के नव योजन ऊपर तथा नव योजन नीचे तक मध्य लोक (तिर्यग्लोक) है। तिर्यग्लोक के नीचे अधोलोक और ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक की अवगाहना कुछ कम सात राजू परिमाण और अधोलोक की कुछ अधिक सात राजू परिमाण है । रुचक प्रदेशों के नीचे असंख्यात करोड़ योजन जाने पर रत्नप्रभा पृथ्वी में चौदह राजू रूप लोक का मध्यभाग आता है अर्थात् वहाँ से ऊपर तथा नीचे लोक का परिमाण ठीक सात राजू रह जाता है।
लोक का संस्थानजामा पहन कर, कमर पर हाथ धर कर नाचते हुए भोपे का जैसा आकार होता है, वैसा ही लोक का आकार है अर्थात् लोक नीचे चौड़ा है, मध्य में संकड़ा हो जाता है, कुछ ऊपर जाकर फिर एक वार चौड़ा हो जाता है । सब से ऊपर जाकर फिर संकड़ा हो जाता है अर्थात् एक राजू चौड़ाई रह जाती है । तत्वार्थसूत्र के भाष्य में लोक की आकृति सुप्रतिष्टक और वज्र के समान बताई है। सुप्रतिष्टक एक प्रकार का वर्तन होता है जो नीचे से चौड़ा, बीच में संकड़ा तथा ऊपर कुछ चौड़ा होकर फिर संकड़ा हो जाता है। वज का आकार भी ऐसा ही होता है।
अधोलोक का संस्थान गाय की गर्दन के समान है क्योंकि अधोलोक में रही हुई सातों पृथ्वियाँ नीचे नीचे एक दूसरे से अधिक विस्तृत हैं।
तिर्यग्लोक झल्लरी (एक तरह का बाजा) या थाली सरीवा है। ऊर्चलोक मृदङ्ग (ढोल) के आकार वाला है अर्थात् बीच में चौड़ा और दोनों किनारों पर संकुचित है।
(तत्त्वार्थ सूत्र सभाध्य अध्याय ३, मुत्र ६ प्रवचनसारोद्धार में इसका स्वरूप यों दिया है- अधोलोक