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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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को दीक्षा देने से मनर्थ होने की सम्भावना रहती है। (१२) अद्रोही- जो झगड़ालू तथा ठग, धूर्त न हो। (१३) सुन्दराङ्गभृत-सुन्दर शरीर वाला हो अथात् उस का कोई अंग हीन या गया हुअान होना चाहिए। अपाङ्गया नष्ट अवयव वाला व्यक्ति दीक्षा के योग्य नहीं होता।
(१४) श्राद्ध-श्रद्धा वाला। दीक्षित भी यदि श्रद्धा रहित हो तो अङ्गारमर्दक के समान वह त्यागने योग्य हो जाता है।
(१५) स्थिर- जो अङ्गीकार किए हुए व्रत में स्थिर रहे। प्रारम्भ किए हुए कार्य को बीच में छोड़ने वाला न हो।
(१६) समुपसम्पन्न- पूर्वोक्त गुणों वाला होकर भी जो दीक्षा लेने के लिए पूरी इच्छा से गुरु के पास आया हो। उपरोक्त सोलह गुणों वाला व्यक्ति दीक्षा के योग्य होता है।
__(धर्म सग्रह अधिकार ३ गाथा ७३-७८) ८६५- गवेषणा (उद्गम) के १६ दोष
श्राहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे यमीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए पाश्रोयर कीय पामिच्चे॥१॥ परियहिए अभिहडे उभिन्न मालोहडे इय ।
अच्छिज्जे अणिसिटे अज्झोयरए य सोलसमे।।२।। (१) आधाकर्म- किसी खास साधु को मन में रख कर उस के निमित्त से सचित्त वस्तु को श्रचित्त करना या अचित्त को पकाना आधाफर्म कहलाता है। यह दोष चार प्रकार से लगता है। प्रतिसेवन- आधाकर्मी आहार का सेवन करना। प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहार के लिये निमंत्रण स्वीकार करना । संवसन-आधाकर्मी पाहार भोगने वालों के साथ रहना । अनुमोदन-आधाकर्मी भाहार भोगने वालों की प्रशंसा करना। (२)ौदेशिक- सामान्य याचकों को देने की बुद्धि से जो