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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला wimmmmmmmmmmmmmmm mom na mornanana
आहारादि तैयार किये जाते हैं, उन्हें प्रौदेशिक कहते हैं। इनकेदो भेद हैं- ओघ और विभाग । भिक्षुकों के लिये अलग तैयार न करते हुए अपने लिये बनते हुए आहारादि में ही कुछ और मिला देना ओघहै । विवाहादि में याचकों के लिये अलग निकाल कर रख छोड़ना विभाग है । यह उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से तीन प्रकार का है। फिर प्रत्येक के उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश इस तरह चार चार भेद हैं। इन सव की विस्तृत व्याख्या नीचे लिखे हुए ग्रन्थों से जाननी चाहिए। किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार अगर वही साधु ले तो आधाकर्म, दूसरा ले तो औदेशिक है। आधाकर्म पहिले से ही किसी खास निमित्त से बनाया जाता है । औद्देशिक साधारण दान के लिये पहिले या बाद में कल्पित किया जाता है।
(३) पूतिकर्म-शुद्ध आहार में आयाकर्मादि का अंश मिल जाना पूतिकर्म है । आधाकर्मी श्राहार का थोड़ा सा अंश भी शुद्ध
और निर्दोप आहार को सदोप वना देता है ।शुद्ध चारित्र पालने वाले संयमी के लिये वह अकल्पनीय है। जिसमें ऐसे आहार का अंश लगा हो ऐसे वर्तन को भी टालना चाहिये।
(४) मिश्रजात- अपने और साधु के लिये एक साथ पकाया हुभाषाहार मिश्रजात कहलाता है । इसके तीन भेद हैं-यावदर्थिक, पाखंडिमिश्र और साधुमिश्र। जो आहार अपने लिये और सभी याचकों के लिये इकहा बनाया जाय वह यावदर्थिक है। जो अपने और साधु सन्यासियों के लिये इकट्ठा बनाया जाय वह पारखण्डिमिश्र है । जो सिर्फ अपने और साधुओं के लिये इकट्ठा किया जाय वह साधमिश्र है।
(५)स्थापन- साधु को देने की इच्छा से कुछ काल के लिये आहार को अलग रख देना स्थापन है।