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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १६३ vorn mammmmmmmmmmmmmm rawn mmmmmmmmmmmmm
(६) प्राभृतिका-साध को विशिष्ट श्राहार वहराने के लिये जीमनवार या निमंत्रण के समय को आगे पीछे करना।
(७)प्रादुष्करण-देय वस्तु के अन्धेरे में होने पर अग्नि, दीपक भादिका उजाला करके या खिड़की वगैरह खोल कर वस्तु को प्रकाश में लाना अथवा आहारादि को अन्धेरी जगह से प्रकाश वाली जगह में लानाप्रादुष्करण है।
(८)क्रीत-साध के लिये मोल लिया हुआआहारादिक्रीत है। (8)प्रामित्य (पामिच्चे)- साधु के लिये उधार लिया हुआ अाहारादि प्रामित्य कहलाता है।
(१०) परिवर्तित-साधु के लिए अट्टा सट्टा करके लिया हुआ आहार परिवर्तित कहलाता है।
(११) अभिहत (अभिहडे)- साधु के लिये गृहस्थ द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया हुआआहार।
(१२) उद्भिन्न-साधु को घी वगैरह देने के लिये कुप्पी आदि का मुंह (लाणन) खोल कर देना।
(१३) मालापहत- ऊपर नीचे या तिरछी दिशा में जहाँ आसानी से हाथ न पहुँच सके वहाँ पंजों पर खड़े होकर या निःसरणी आदि लगा कर आहार देना।इसके चार भेद हैं-ऊर्ध्व, अधः, उभय और तिर्यक् । इनमें से भी हर एक के जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम रूप से तीन २ भेद हैं। एडियाँ उठाकर हाथ फैलाते हए छत में टंगे छींके वगैरह से कुछ निकालना जघन्य ऊध्र्वमालापहृत है। सीढ़ी वगैरह लगा कर ऊपर के मंजिल से उतारी गई वस्तु उत्कृष्ट मालापहृत है। इनके बीच की वस्तु मध्यम है। इसी तरह अधः, उभय और तिर्यक् के भेद भी जानने चाहिये।
(१४) आच्छेद्य-निर्बल व्यक्ति या अपने आश्रित रहने वाले नौकर चाफर और पुत्र वगैरह से छीन कर साधुजी को