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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
गइ इंदिए य काये, जोए वेए कसायनाणेसु । संजम दसणलेस्सा, भवसम्मे सन्नि भाहारे ।
(कर्मप्रन्थ ४ गाथा ) अर्थात् - मार्गणास्थान के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, सज्ञित्व और आहार ये चौदह भेद हैं।
(१) गति-जीव के जो पयोय गति नामकर्म के उदय से होत हैं और जिनके कारण जीव देव, मनुष्य, तिर्यञ्च या नारकी कहा जाता है, उसे गति कहते हैं।
(२) इन्द्रिय- अङ्गोपाङ्ग और निर्माण नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाले स्पर्शन, नेत्र श्रादि जिन साधनों से सरदी, गर्मी तथा काले पीले आदि विषयों का ज्ञान होता है वे इन्द्रिय हैं।
(३) काय- जिसकी रचना और वृद्धि औदारिक, वैक्रिय आदि यथायोग्य पुद्गल स्कन्धों से होती है ऐसे शरीर नामकर्म के उदय से बनने वाले शरीर को काय कहते हैं।
(४) योग-वीर्यशक्ति के जिस परिस्पन्द (हलन चलन) से गमन, भोजन आदि क्रियाएं होती हैं और जो परिस्पन्द शरीर, भाषा तथा मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होता है, वह योग है।
(५) वेद- वेदमोहनीय कर्म के उदय से होने वाली कामचेष्टा जन्य मुख के अनुभव की इच्छा को वेद कहते हैं।
(६)कपाय-फिसी पर नाराज होना या आसक्त होना आदि मानसिक विकार जो कषायमोहनीय कर्म के उदय से होते हैं और कर्मबन्ध के कारण हैं व कषाय कहे जाते हैं।
(७)ज्ञान-वस्तु को विशेष रूप से जानने वाले चेतना शक्ति । के व्यापार (उपयोग) को ज्ञान कहते हैं। (८) संयम-कर्म वॉधने वाले कार्यों को छोड़ देना संयम है।